शीत ऋतु
देवेन्द्र देशज सर-सर पछुआ चल रही, रूप रखी विकराल। सूर्य संग है मित्रता, रातों संग मलाल।। कम्बल से संबल मिला, राहत देती आग। चाहत बढ़ती चाय...
शीत ऋतु
गहरी रात
क़दम मिला कर चलना होगा
खुशी के वो पल
पिता....
लक्ष्य
गीत नहीं गाता हूँ।
दुख
फूल पलाश के ले आना
नयी कोपल
ईश्वर के करम
एक परिंदे का खत, मेरे नाम।
दूध में दरार पड़ गई
आपके लिए
जग का मेला
आओ फिर से दिया जलाएँ
तृप्त हो जाती
अज्ञानी
बेपनाह मुहब्बत
कर्मों की दौलत