कशक
- अजीत अस्थाना
- Dec 6, 2024
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अजीत अस्थाना
मेरी और रमन की शादी शुदा जिंदगी खुशहाल थी। घर में कोई कमी नहीं थी। सास, ससुर और एक देवर का मेरा छोटा सा संसार था। रमन एक मल्टीनेशनल कंपनी में अधिकारी थे। अच्छी तनख्वाह और सारी सुख सुविधा थी। रमन मुझे दिलो जान से चाहते थे।
शादी के डेढ़ वर्ष बीतते बीतते हम एक पुत्र के मां, बाप हो गए। पोते को पा कर उसके दादा, दादी, चाचा सभी खुश थे।
उनका परिवार दरभंगा में रहता था। मैं, रमन और बेटा राजू के साथ उनकी नौकरी पर पटना में रहते थे। मेरा मायका बनारस में था।
रमन हर दूसरे दिन हम दोनों को बाहर घुमाने फिराने ले जाते। अक्सर हम होटल में ही रात का खाना खाते।
सच मूच मुझे दुनिया की सारी खुशीयां मिल गई थी। सच ही कहते हैं, मां, बाप की पसंद और मर्जी से किए फैसले अच्छे होते हैं।
सब कुछ ठीक ठाक था। मगर अक्सर जब सब अच्छा होता है तब कभी-कभी बुराई का आगाज भी हो जाता है।
एक दिन रमन ऑफिस से आए तो हमेशा की तरह खुश नही थे। उनके चेहरे की परेशानी देख कर मुझे फिक्र होने लगी। वह जब भी घर लौटते तो सब से पहले मुझे ढूंढते फिर राजू के साथ खेलने लगते। मगर उस दिन ऐसा नहीं हुआ। रमन अपना बैग सोफा पर रख कर चुप चाप बैठ गए। मुझे चिंता हुई तो वजह पूछने पर "कुछ नहीं" कह कर कमरे में चले गए।
मै समझी कि ऑफिस की कोई परेशानी होगी। मैने रोज की तरह चाय बनाई और ले कर उनके कमरे में गई। पलंग पर बिना कपड़ा बदले चुपचाप पड़ा देख कर मुझे ज्यादा चिंता होने लगी। इस तरह परेशान हाल मैंने इन्हें कभी नही देखा था। मैंने चाय उनकी ओर बढ़ायी तो बिना मेरी ओर देखे कहा "रख दो टेबल पर"
मुझे इनका व्यवहार अजीब सा लगा। कारण पूछने पर झुंझलाते हुए कहा "मुझसे बार बार मत पूछो। जब बताना होगा तो बता दूंगा"
मुझे आगे कुछ भी पूछने की हिम्मत नहीं हुई। मैं किचन में चली आई। एक घंटे बाद सोए हुए राजू को कमरे में ले कर आई, तब तक वह सो चुके थे। मैने खाने के लिए उठाया, मगर उन्होंने कह दिया कि भूख नहीं है।
मैं काफी देर तक चिंतित रही। पता नही मुझे कब नींद आ गई।
सुबह देर से मेरी नींद खुली। रमन बिना मुझे जगाए पता नहीं कब ऑफिस चले गए थे। मैं दिन भर परेशान हाल, शाम होने का इंतजार करती रही। मैने सोच रखा था कि शाम को उनके परेशानी की वजह पूछ कर ही रहूंगी।
शाम को वह देर से लौटे। उन्हें चाय दे कर सामने बैठ गई और परेशानी की वज़ह जानने की जिद करने लगी। मेरी जिद पर रमन गौर से मेरी आंखों में देखने लगे। उस दिन उनकी आंखों में देख कर मैं सिहर उठी थी। इनकी आंखों में इतनी बेचैनी मैने पहले कभी नही देखी थी।
बार-बार पूछने पर उन्होंने उल्टा मुझसे सवाल किया "शादी से पहले पंकज से तुम्हारा क्या रिश्ता था...?”
यह सुनते हीं मेरा सर चकराने लगा। मेरे हाथ पांव कांपने लगे। मेरी जुबान सिल गई। उनकी घूरती आंखों का सामना करने की मेरे अंदर हिम्मत खत्म हो चुकी थी। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि रमन के सवाल का क्या जवाब दूं..?
वह लगातार मुझे घूर रहे थे। मैं ऊतना ही नर्वस हो रही थी। मुझे खामोश देख कर उनके होठों पर एक कुटिल मुस्कान उभरी। उन्होंने कहा "शायद सच बोलने की हिम्मत तुम्हारे अंदर खत्म हो गई है न..?"
रमन मेरे पास से उठे और घर से बाहर निकल गए।
मैं पत्थर की तरह सोफा पर जम सी गई।
राजू सो गया था। घर के अंदर का सन्नाटा मुझे और ज्यादा भयभीत कर रहा था। मैं सोचने लगी कि अचानक पंकज की बात पूछने की क्या वजह होगी। शादी के तीन साल बाद अचानक पंकज का जिक्र हमारे बीच आ जाने से मैं डर सी गई थी। कहते हैं न कि हर डर के पीछे कोई न कोई छुपी वजह जरूर होती है। मुझे पहले डर हुआ करता था क्योंकि मेरे मायके के रिश्तेदार और वहां के पास पड़ोस के लोग जब भी काम से पटना आते तो रमन से ऑफिस में मिल कर जाते। इस लिए मैं हमेशा चौकस रहती।
यह सच है कि शादी से पहले मैं पंकज को पसंद करती थी। पंकज भी मुझे चाहते थे। मेरे पड़ोस में रहने वाला पंकज एक अच्छा लड़का था। वह सुंदर था और पढ़ाई में अव्वल भी था। उसमें हर वह बात थी जिससे कोई भी लड़की आकर्षित हो सकती थी। हम दोनों दिल ही दिल में एक दूसरे को पसंद करते थे। मगर हमने अपने दिलों की बात एक दूसरे पर कभी भी जाहिर नहीं किया था। पड़ोसी होने के कारण हमारा राफ्ता हमेशा होता। हम एक दुसरे के काम भी आते। एक दूसरे का ख्याल भी रखते। हम दोनों एक दूसरे के जज़बाद की परवाह भी करते। दोस्तों में हमारी पसंदगी की चर्चा भी होती। मगर हम दोनों एक दूसरे से प्यार का इजहार नहीं कर पाए थे। या यूं समझे की हमारी हिम्मत नहीं हुई थी।
मुहल्ले में भी लोग हम दोनों को शक की नजर से देखते थे। मगर हम कभी भी एक दुसरे के सामने अपने प्यार का इजहार नहीं कर पाए।
उसका मुख्य कारण था, हमारे परिवारों का संस्कारी होना। हम दोनों को अपने माता, पिता की भावनाओं का हमेशा और खुद से ज्यादा परवाह होती। कई बार हमें मौका भी मिला जब अपने प्यार का इजहार कर सकते थे। मगर संस्कारी परवरिश और परिवार की इज्जत ने हमें ऐसा करने से रोक दिया था।
इसी बीच मेरे घर वालों ने मेरा रिश्ता रमन से तय कर दिया।
जिस दिन मेरी शादी की तारीख तय की गई, उस दिन पंकज ने हिम्मत दिखाई और अपने प्यार का इजहार कर दिया। मगर उसके इस स्वीकारोक्ति में देरी होने तथा पापा के फैसले से इंकार करने की हिम्मत मुझमें नहीं होने के कारण, मैंने अपने दिल की बात पंकज से छुपा ली और प्यार से इंकार कर दिया। क्योंकि मैं जानती थी कि अगर मैं अपने दिल की सच्चाई उसे बता देती तो वह मर जाता। मेरे दिल में भी उसके लिए प्यार है, यह जान कर वह मेरी जुदाई बर्दाश्त नहीं कर पाता। इस लिए मैंने सच्चाई की छुपा लिया था।
मेरी शादी हो गई। पंकज से बिछड़ने का दुख मुझे बहुत दिनों तक सताता रहा। मगर वक्त हर घाव को भर देता है। पति का प्यार, ससुराल का दुलार मुझे मेरे गम से बाहर निकलने में बहुत मदद की। मैं लगभग पंकज को भूल गई। कभी-कभी जब मायके जाती तब पंकज के बारे में जानकारी होती। वह मेरे लिए दीवाना हो गया था। अपनी जिंदगी बरबाद करने पर तुला था। यह सब जान कर मुझे दुख होता। मेरी वजह से उसकी जिंदगी खराब हो गई थी। मैं खुद को उसका गुनहगार समझती। क्या हो जाता अगर मैं पहले ही उसके प्यार को स्वीकार कर लेती और अपने घर वालों से अपनी इक्षा जाहिर कर के उससे शादी कर लेती..?
फिर जब वापस रमन के पास लौटती तो कुछ दिन में पंकज को भूल जाती।
मैं बेचैनी से रमन का इंतजार करती रही। काफी रात को वह लौटा। उनका चेहरा अब भी तमतमाया हुआ था। मैं उनके सामने गुनहगार की तरह महसूस कर रही थी। मैं समझ नहीं पा रही थी कि इस मुश्किल से किस तरह निकलूं। रमन ने कपड़े बदले और बिना खाए सोने चले गए।
मैने भी खाना नहीं खाया था। पलंग पर हम दोनों खामोश पड़े थे। मैं बात करना चाहती थी क्योंकि बात करना ही इस मुश्किल का एक मात्र हल था। मगर रमन दूसरी ओर सर घुमाए पड़े थे। मुझे मालूम था कि उनकी आंखों में भी नींद नहीं थी।
मैने हिम्मत कर के कहा "तुमने जो पूछा था, उसका जवाब सुनना नहीं चाहोगे...?”
वह उसी तरह मुंह फेरे पड़े रहे।
मैने फिर कहा "अगर तुमने सवाल किया है तो जब तक जवाब नहीं सुनोगे तो सवाल का क्या मतलब रह जाएगा..? मैं तुम्हारे हर सवाल का जवाब देना चाहती हूं, चाहे इसका परिणाम कुछ भी हो"
मेरी इस बात का असर हुआ। रमन मेरी ओर मुड़ कर मुझे देखने लगे।
मुझे अब भी उनकी घूरती आंखों में देखने में मुश्किल हो रही थी। मगर मुझे सामना तो करना ही था।
मैने मुश्किल से कहना शुरू किया "पंकज मेरे पड़ोस में रहता है। हम लोग हमउम्र थे। एक पड़ोसी होने के नाते हमारा पारिवारिक संबंध था। हम लोगों का एक दूसरे के घर आना जाना था। इस संबंध के कारण पंकज के दिल में मेरे लिए कब आकर्षण हो गया, इसकी जानकारी मुझे नहीं थी। मेरी शादी जब तुमसे तय हो गई तब उसने मुझे प्रपोज किया था, जिसे मैने इंकार कर दिया था। अगर मेरे दिल में कुछ भी होता तो या तो मैं तुमसे शादी करने से इंकार कर देती या फिर तुम्हारे साथ खुशहाल जिंदगी नही जी पाती। तुम बहुत पहले मेरे दिल के अंदर के चोर को जान गए होते। क्या तुमने कभी भी मेरे प्यार में कभी या खोट महसूस किया था...? मेरी तरफ से बस यही सच है"
मैने इतनी बातें एक ही सांस में कह दिया। क्योंकि मुझे किसी भी तरह अपने संसार को बचाना था। मैने जो कहा उसमे पंकज के तरफ का पक्ष, सच था किंतु मैंने अपने सच को छुपा लिया था। शादी से पहले जब पंकज ने अपने प्यार का इजहार किया था तब भी मैने उससे झूठ कह कर अपनी सच्चाई को छुपाया था।
मेरी बात सुनने के बाद रमन ने कोई भी प्रतिक्रिया नही दी। और वह दूसरी तरफ मुंह फेर कर सो गया।
मैं भी यह सोच कर सोने की कोशिश करने लगी कि हो सकता है रमन मेरी बात समझ कर सुबह ठीक हो जाएंगे।
मगर ऐसा नहीं हुआ। शीशे में पड़े खरोच की तरह रमन के दिल में मेरे लिए खोट कम नहीं हुई। कई दिन हो गए, रमन खुल कर मुझ से बात नहीं करते। वह अपने जरूरत के हिसाब से ही बोलते। मुझे उनके व्यवहार से परेशानी होने लगी। इसी तरह दो महीने गुजर गए। मैं रमन के दिल से बात निकाल नहीं पाई। वह बात-बात में पंकज के नाम पर ताना देने लगे। यह मुझे बुरा लगता। एक समय ऐसा भी आया जब उनसे मेरी लड़ाई भी होने लगी। मेरे भी बर्दाश्त की कोई हद थी।
रमन कई बार मुझे मायके छोड़ आने की धमकी देते। पहले मैं सुन कर रह जाती। मगर अब मैं भी बोलने लगी थी। मैने भी कहना शुरू कर दिया था कि मुझे मायके छोड़ दो।
वह दिन भी आ गया जब मुझे पापा के पास जाने का निश्चय करना पड़ा। मैं उनके तानों से तंग आ गई थी। रमन ने एक बार भी मुझे रोकने की कोशिश नहीं की। सीधा ट्रेन का रिजर्वेशन टिकिट मेरे हाथ में थमा दिया। मैं भी जोश में थी सो चल पड़ी।
मायके पहुंचने के बाद मैने पापा, मां से कुछ भी नहीं बताया। कहा कि बहुत दिनों से आप लोगों की याद सता रही थी, इस लिए आ गई।
मुझे उम्मीद थी कि जल्द ही रमन का गुस्सा शांत होगा, उसे मेरी तथा राजू की कमी महसूस होगी तो खुद लेने आ जायेंगे।
मायके में आने की खबर पंकज को मिल चुकी थी। वह मुझसे संपर्क करना चाह रहा था।
एक दिन मेरी मुलाकात हो गई। उसकी हालत देख कर मेरा दिल रो पड़ा। उसने तो मेरे प्यार में दिवानगी पाल ली थी। उसे अब तक यकीन नहीं हुआ था कि मैं उससे प्यार नहीं करती थी। उसने इशारों-इशारों में कई बार मुझ से सच जानना चाहा, मगर मैं उसकी जिंदगी और अपनी शादी बचाने के लिए झूठ का सहारा लेती रही। मुझे पंकज का सामना करना मुश्किल होता जा रहा था। मैं चाहती थी कि वह मुझे भूल जाए।
इसी तरह कई महीने बीत गए। ना रमन मुझे लेने आए, ना ही कभी फोन किया। पापा, मां को इतने दिन मुझे यहां रहने से चिंता होने लगी। वे बार=बार मुझे रमन को फोन कर के बुलाने को कहने लगे। मैं टालती रही। जल्द ही उन्हें शक हो गया।
एक दिन पापा ने रमन को फोन कर दिया। रमन ने कठोरता से कह दिया कि उसे मेरी जरूरत नहीं है। अपनी बेटी को अपने पास ही रखें। रमन के रुखे जवाब से मां, पापा परेशान हो गए।
एक दिन पंकज मिला तो उसने भी काफी महीने से पापा के पास रहने की वजह पूछ ली। मैने भी भावना में आ कर रमन के शक के बारे में बता दिया। पंकज को दुख हुआ। वह मेरी फिक्र से और ज्यादा चिंतित हो गया। उसे इस बात का अफसोस हो रहा था कि उसके एक तरफा प्रेम की भेट मेरी जिंदगी चढ़ गई थी। उसने इशारों=इशारों में कहा कि अगर मैं वापस रमन के पास लौटना नहीं चाहती या रमन कोई तरजीह नहीं दे रहा है तो वह मुझे मेरे बेटे के साथ खुशी-खुशी अपनाने के लिए तैयार है। मगर यह मुझे मंजूर नहीं था। भले हीं शादी से पहले मैं पंकज को चाहती थी, मगर शादी के बाद किसी गैर मर्द की कल्पना करना मेरे संस्कार में नहीं था। मैने पंकज के अनुरोध को अस्वीकार कर दिया।
एक दिन अचानक पंकज ने बताया कि वह जल्द शादी करने वाला है।
उसने यह भी बताया कि अगर मेरी जिंदगी मुश्किल में नहीं होती तो वह पूरी जिंदगी मेरी यादों के सहारे काट देता।
अचानक एक दिन रमन का फोन आया। उसने बताया कि पंकज अपनी शादी का कार्ड ले कर शहर आया था। उसने रमन को यह कह कर कार्ड दिया कि "आप हमारे मुहल्ले के दामाद हैं, इसलिए वह खास तौर से उन्हें निमंत्रित करने आया है"
मैं समझ गई कि पंकज ने यह कुर्बानी मेरे लिए ही दी थी।
पंकज की शादी के रिसेप्शन में रमन खास तौर पर आए। उन्हें अब मेरी बात पर भरोसा हुआ था।
स्टेज पर पंकज अपनी दुल्हन के साथ बैठा था। रमन और मैं दोनो को मिलने स्टेज पर गए। रमन और मुझ से मिलते वक्त पंकज के होठों पर तो मुस्कुराहट थी। मगर उसकी आंखों के दर्द को सिर्फ मैं ही पहचान रही थी।
अगले दिन रमन जब लौटे तब साथ में मैं और राजू भी थे। रमन की जब भी मुझसे आंख मिलती, उसमें उसका अपराध बोध होता, मानो उसने मुझ पर शक कर के गलती कर दी हो। जहां उनके दिल में खुशी होती वहीं मेरा दिल बेजुबान होता। उसमें कहीं न कहीं पंकज के लिए कशक जरूर होती।
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