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डोर

“नंदिता! प्रतियोगी परीक्षाओं के फॉर्म भरे कि नहीं? फॉर्म पास है या ले आऊँ?"
“ग्रेजुएशन के बाद से ही किसी बड़े व्यवसाई घराने में ब्याह हो जाए, बस इतना ही ख्वाब है मेरे माता पिता का। मैं किसी को पसंद न आई, तभी पढ़ाई पूरी हो पाई”, उदास मुस्कान आकर ठहर गई।
“ऐसा न कहिए, नंदिता! आप कॉलेज की शान हैं, एक खूबसूरत, व्यवहारिक, टॉपर लड़की का सपना सिर्फ किसी सेठ जी की बहू बनना कैसे हो सकता है?” नाटकीय अंदाज़ में उसने पूछा।
“कॉलेज टॉपर तुम हो, मैं तो सातवीं-आठवीं पोजीशन में अटककर आगे की कक्षा में प्रमोट कर दी जाती हूँ, बस”, प्यारे से मुखड़े पर हँसी खिल उठी। पर क्षण भर बाद ही उदासी ने ग्रस लिया, "मेरी शादी के लिए किए जा रहे बारं-बार प्रयास और शारीरिक दोष के कारण अस्वीकृति। माता-पिता के टूटते सपनों का बोझ मेरे कंधों पर है।"
“वैलेंटाइन वीक चल रहा है। अपना रहस्य मैं भी उजागर कर दूँ? प्यारी सी दोस्त से तुम कब पसंद बन गई, जान ही नहीं पाया। निम्न मध्यवर्गीय पृष्ठभूनि वाला मैं बेरोजगार बंदा, हाल-ए-दिल सुनाऊँ तो सुनाऊँ कैसे?" खुशगवारी की कूची फिर गई, “रिश्तों की तलाश शुरू हो चुकी है, तुमने कभी बताया नहीं! भला हो तुम्हें रिजेक्ट करने वाले लड़कों का। तुम्हारी डोली उठती तो मैं देवदास पार्ट टू बन जाता”, नाटकीय गुस्से में वह बोला।
"प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी से भाषा पर अधिकार हो गया है, तभी इतनी बातें बनाते हो। इतने वर्षों में इतने वेलेंटाइन वीक आकर निकल गए, एक भी वैलेंटाइन गिफ्ट दिया होता तब तो मैं इशारा समझती।"
“खाली जेब वालों के लिए कैसा वैलेंटाइन वीक? वैसे भी बाजारवाद जानबूझकर इस बात को बढ़ावा देता है ताकि लोगों की जेब ढीली की जा सके।”
“तुमसे बहस में कौन जीता है। गिफ्ट को मारो गोली, एक गुलाब ही दे दिया होता।”
“पर्यावरण प्रेमी हूँ भाई। गुलाबों को डंडी से अलग कर मुरझाने को विवश कर देना बुरा लगता है। प्यार की मुहर के रूप मम्मी की अँगूठी लाकर पहना दूँ? शायद विश्वास हो जाए, ‘हम बने, तुम बने, एक दूजे के लिए।’ मैं इंतजार में था बालसखा कि हम में से किसी की भी नौकरी लगे, तब मैं दोनों के माँ-बाप से शादी की अनुमति माँगूँ। आपके खूबसूरत नैनों में अपने लिए पसंद आँक चुका था, पर आपने भी अब तक कुछ नहीं कहा, नंदिता!”
“कैसे कहती मयंक? मेरा पोलियोग्रस्त एक पैर, तुम इतने हैंडसम और बैच टॉपर! औरों से न सुनना मंजूर था, तुम्हारी न सुनने के बाद धड़कनें रुक न जातीं?"
“पोलियोग्रस्त लड़की को बहू बनाने को आंटी राजी न हुईं तो?” नंदिता को चिंता हुई।
“छोड़ो! कौन सा उन्हें बहू को धावक बनाना है। दिनचर्या में कहाँ कोई व्यवधान आता है? डर आपके माता-पिता के मना कर देने का है”, मयंक की जिंदादिली कायम थी।
नंदिता की आँखों में खूबसूरत सपने तैरने लगे, मयंक ही था उसका असली वैलेंटाइन, जो वर्षों से उसका साथ देता, उसकी परवाह करता आ रहा था। गुलाब, चॉकलेट, टेड्डी बियर तथा स्पर्श के बिना ही जीवन में उसने प्यार के सुनहरे रंग बिखेर दिए थे।
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