नीलिमा मिश्रा
ट्रेन चलने को ही थी कि अचानक कोई जाना पहचाना सा चेहरा जर्नल बोगी में आ गया। मैं अकेली सफर पर थी। सब अजनबी चेहरे थे। स्लीपर का टिकट नही मिला तो जर्नल डिब्बे में ही बैठना पड़ा मगर, यहां ऐसे हालात में उस शख्स से मिलना जिंदगी के लिए एक संजीवनी के समान था।
जिंदगी भी कमबख्त कभी-कभी अजीब से मोड़ पर ले आती है। ऐसे हालातों से सामना करवा देती है जिसकी कल्पना तो क्या कभी ख्याल भी नही कर सकते।
वो आया और मेरे पास ही खाली जगह पर बैठ गया। ना मेरी तरफ देखा ना पहचानने की कोशिश की। कुछ इंच की दूरी बना कर चुप चाप पास आकर बैठ गया।
बाहर सावन की रिमझिम लगी थी, इस कारण वो कुछ भीग गया था। मैने कनखियों से नजर बचा कर उसे देखा। उम्र के इस मोड़ पर भी कमबख्त वैसा का वैसा ही था। हां कुछ भारी हो गया था।
मगर इतना ज्यादा भी नही। फिर उसने जेब से चश्मा निकाला और मोबाइल में लग गया। चश्मा देख कर मुझे कुछ आश्चर्य हुआ। उम्र का यही एक निशान उस पर नजर आया था कि आंखों पर चश्मा चढ़ गया था। चेहरे पर और सर पे मैने सफेद बाल खोजने की कोशिश की मगर मुझे नही दिखे।
मैंने जल्दी से सर पर साड़ी का पल्लू डाल लिया। बालों को डाई किए काफी दिन हो गए थे मुझे। ज्यादा तो नही थे सफेद बाल मेरे सर पे मगर इतने जरूर थे कि गौर से देखो तो नजर आ जाए।
मैं उठकर बाथरूम गई। हैंड बैग से फेसवाश निकाला, चेहरे को ढंग से धोया फिर शीशे में चेहरे को गौर से देखा। पसंद तो नही आया मगर अजीब सा मुँह बना कर मैने शीशा वापस बैग में डाला और वापस अपनी जगह पर आ गई।
मगर वो साहब तो खिड़की की तरफ से मेरा बैग सरकाकर खुद खिड़की के पास बैठ गए थे। मुझे पूरी तरह देखा भी नही बस बिना देखे ही कहा, सॉरी भाग कर चढ़ा तो पसीना आ गया था थोड़ा सूख जाए फिर अपनी जगह बैठ जाऊंगा।
फिर वह अपने मोबाइल में लग गया मेरी इच्छा जानने की कोशिश भी नही की।
उसकी यही बात हमेशा मुझे बुरी लगती थी। फिर भी ना जाने उसमें ऐसा क्या था कि आज तक मैंने उसे नही भुलाया। एक वो था कि दस सालों में ही भूल गया।
मैंने सोचा शायद अभी तक गौर नही किया पहचान लेगा। थोड़ी मोटी हो गई हूँ शायद इसलिए नही पहचाना मैं उदास हो गई।
जिस शख्स को जीवन में कभी भुला ही नही पाई उसको मेरा चेहरा ही याद नही। माना कि ये औरतों और लड़कियों को ताड़ने की इसकी आदत नही मग़र पहचाने भी नही।
शादीशुदा है। मैं भी शादीशुदा हूँ जानती थी। इसके साथ रहना मुश्किल है मगर इसका मतलब यह तो नही कि अपने ख्यालों को अपने सपनों को जीना छोड़ दूं।
एक तमन्ना थी कि कुछ पल खुल के उसके साथ गुजारूं। माहौल दोस्ताना ही हो मगर हो तो सही। आज वही शख्स पास बैठा था जिसे स्कूल टाइम से मैने दिल में बसा रखा था।
शोसल मीडिया पर उसके सारे एकाउंट चोरी छुपे देखा करती थी। उसकी हर कविता हर शायरी में खुद को खोजा करती थी। वह तो आज पहचान ही नही रहा।
माना कि हम लोगों में कभी प्यार की पींगे नही चली, ना कभी इजहार हुआ, हां वो हमेशा मेरी केयर करता था और मैं उसकी केयर करती थी।
कॉलेज छूटा तो मेरी शादी हो गई और वो फौज में चला गया फिर उसकी शादी हुई।
जब भी गांव गई उसकी सारी खबर ले आती थी।
बस ऐसे ही जिंदगी गुजर गई।
आधे घण्टे से ऊपर हो गया वो आराम से खिड़की के पास बैठा मोबाइल में लगा था देखना तो दूर चेहरा भी ऊपर नही किया।
मैं कभी मोबाइल में देखती कभी उसकी तरफ शोसल मीडिया पर उसके एकाउंट खोल कर देखे।
तस्वीर मिलाई वही था पक्का वही कोई शक नही था। वैसे भी हम महिलाएं पहचानने में कभी भी धोखा नही खा सकती 20 साल बाद भी सिर्फ आंखों से पहचान ले।
फिर और कुछ वक्त गुजरा माहौल वैसा का वैसा था मैं बस पहलू बदलती रही।
फिर अचानक टीटी आ गया सबसे टिकट पूंछ रहा था।
मैंने अपना टिकट दिखा दिया। उससे पूँछा तो उसने कहा नही है।
टीटी बोला फाइन लगेगा।
वह बोला लगा दो।
टीटी कहाँ का टिकट बनाऊं?
उसने जल्दी से जवाब नही दिया मेरी तरफ देखने लगा। मैं कुछ समझी नही।
उसने मेरे हाथ में थमी टिकट को गौर से देखा फिर टीटी से बोला कानपुर।
टीटी ने कानपुर की टिकट बना कर दी और पैसे लेकर चला गया।
वह फिर से मोबाइल में तल्लीन हो गया।
आखिर मुझसे रहा नही गया मैंने पूंछ ही लिया कानपुर में कहाँ रहते हो?
वह मोबाइल में नजरें गढ़ाए हुए ही बोला कहीँ नही।
वह चुप हो गया तो मैं फिर बोली किसी काम से जा रहे हो।
वह बोला हाँ।
अब मै चुप हो गई। वह अजनबी की तरह बात कर रहा था और अजनबी से कैसे पूंछ लूँ किस काम से जा रहे हो।
कुछ देर चुप रहने के बाद फिर मैंने पूछ ही लिया वहां शायद आप नौकरी करते हो?
उसने कहा नही।
मैंने फिर हिम्मत कर के पूँछा तो किसी से मिलने जा रहे हो?
वही संक्षिप्त उत्तर नही।
आखिरी जवाब सुनकर मेरी हिम्मत नही हुई कि और भी कुछ पूंछूँ अजीब आदमी था बिना काम सफर कर रहा था।
मैं मुँह फेर कर अपने मोबाइल में लग गई।
कुछ देर बाद खुद ही बोला ये भी पूंछ लो क्यों जा रहा हूँ कानपुर?"
मेरे मुंह से जल्दी में निकला बताओ क्यों जा रहे हो?
फिर अपने ही उतावलेपन पर मुझे शर्म सी आ गई।
उसने थोड़ा सा मुस्कुराते हुये कहा एक पुरानी दोस्त मिल गई।
जो आज अकेले सफर पर जा रही थी फौजी आदमी हूँ। सुरक्षा करना मेरा कर्तव्य है अकेले कैसे जाने देता। इसलिए उसे कानपुर तक छोड़ने जा रहा हूँ। इतना सुनकर मेरा दिल जोर से धड़का। नॉर्मल नही रह सकी मैं।
मगर मन के भावों को दबाने का असफल प्रयत्न करते हुए मैने हिम्मत कर के फिर पूँछा कहाँ है वो दोस्त?
कमबख्त फिर मुस्कराता हुआ बोला यहीं मेरे पास बैठी है ना"
इतना सुनकर मेरे सब कुछ समझ में आ गया कि क्यों उसने टिकट नही लिया क्योंकि उसे तो पता ही नही था मैं कहाँ जा रही हूं।
सिर्फ और सिर्फ मेरे लिए वह दिल्ली से कानपुर का सफर कर रहा था जान कर इतनी खुशी मिली कि आंखों में आंसू आ गए।
दिल के भीतर एक गोला सा बना और फट गया। परिणाम में आंखे तो भीगनी ही थी।
बोला रो क्यों रही हो?
मैं बस इतना ही कह पाई तुम मर्द हो नही समझ सकते।
वह बोला क्योंकि थोड़ा बहुत लिख लेता हूँ इसलिए एक कवि और लेखक भी हूँ।
सब समझ सकता हूँ।
मैंने खुद को संभालते हुए कहा शुक्रिया मुझे पहचानने के लिए और मेरे लिए इतना टाइम निकालने के लिए।
वह बोला प्लेटफार्म पर अकेली घूम रही थी कोई साथ नही दिखा तो आना पड़ा।
कल ही रक्षा बंधन था इसलिए बहुत भीड़ है तुमको यूँ अकेले सफर नही करना चाहिए।
क्या करती उनको छुट्टी नही मिल रही थी और भाई यहां दिल्ली में आकर बस गए राखी बांधने तो आना ही था। मैंने मजबूरी बताई।
ऐसे भाइयों को राखी बांधने आई हो जिनको ये भी फिक्र नही कि बहिन इतना लंबा सफर अकेले कैसे करेगी?
भाई शादी के बाद भाई रहे ही नही भाभियों के हो गए। मम्मी पापा रहे नही।
कह कर मैं उदास हो गई।
वह फिर बोला तो पति को तो समझना चाहिए।
उनकी बहुत बिजी लाइफ है मैं ज्यादा डिस्टर्ब नही करती और आजकल इतना खतरा नही रहा कर लेती हूं मैं अकेले सफर तुम अपनी सुनाओ कैसे हो?
अच्छा हूँ कट रही है जिंदगी।
मेरी याद आती थी क्या?
मैंने हिम्मत कर के पूँछा।
वो चुप हो गया।
कुछ नही बोला तो मैं फिर बोली सॉरी यूँ ही पूंछ लिया। अब तो परिपक्व हो गए हैं कर सकते है ऐसी बात।
उसने शर्ट की बाजू की बटन खोल कर हाथ में पहना वो तांबे का कड़ा दिखाया जो मैंने ही फ्रेंडशिप डे पर उसे दिया था।
बोला याद तो नही आती पर कमबख्त ये तेरी याद दिला देता था।
कड़ा देख कर दिल को बहुत शुकुन मिला मैं बोली कभी सम्पर्क क्यों नही किया?
वह बोला डिस्टर्ब नही करना चाहता था तुम्हारी अपनी जिंदगी है और मेरी अपनी जिंदगी है।
मैंने डरते डरते पूँछा तुम्हें छू लूं।
वह बोला पाप नही लगेगा?
मै बोली नही छूने से नही लगता।
और फिर मैं कानपुर तक उसका हाथ पकड़ कर बैठी रही।
बहुत सी बातें हुईं।
जिंदगी का एक ऐसा यादगार दिन था जिसे आखरी सांस तक नही बुला पाऊंगी।
वह मुझे सुरक्षित घर छोड़ कर गया रुका नही बाहर से ही चला गया।
जम्मू थी उसकी ड्यूटी चला गया।
उसके बाद उससे कभी बात नही हुई क्योंकि हम दोनों ने एक दूसरे के फोन नम्बर नही लिए।
हलाकि हमारे बीच कभी भी नापाक कुछ भी नही हुआ। एक पवित्र सा रिश्ता था मगर रिश्तों की गरिमा बनाए रखना जरूरी था।
फिर ठीक एक महीने बाद मैंने अखबार में पढ़ा कि वो देश के लिए शहीद हो गया।
क्या गुजरी होगी मुझ पर वर्णन नही कर सकती उसके परिवार पर क्या गुजरी होगी पता नही। लोक लाज के डर से मैं उसके अंतिम दर्शन भी नही कर सकी।
आज उससे मिले एक साल हो गया है। आज भी रक्षाबन्धन का दूसरा दिन है। आज भी सफर कर रही हूँ। दिल्ली से कानपुर जा रही हूं जानबूझकर जनरल डिब्बे का टिकट लिया है मैंने।
अकेली हूँ न जाने दिल क्यों आस पाले बैठा है कि आज फिर आएगा और पसीना सुखाने के लिए उसी खिड़की के पास बैठेगा।
एक सफर वो था जिसमे कोई हमसफर था।
एक सफर आज है जिसमे उसकी यादें हमसफर है। बाकी जिंदगी का सफर जारी है देखते हैं कौन मिलता है कौन साथ छोड़ता है।
*****
Comments