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सज़ा

निरंजन धुलेकर

अब बेटे के पास ढेरों ऐसे काम थे जिनका संबंध घर से तो बिल्कुल भी नही था। पढ़ाई के अलावा बहुत सारी बातें उसके लिए बेहद ज़रूरी हो चुकीं थीं। घर से बाहर जाने की उसे इतनी जल्दी रहती कि घर का काम करना तो दूर उसे काम को सुनने का भी वक़्त नही था। कुछ कहने पर वो उसे अनसुना करता बाहर निकल जाता।
घर के किसी काम से बाहर गया भी तो कोई गारंटी नहीं कि उसे वो याद रहेगा। लौटने पर बोलता कि सॉरी भूल गया, और बात ख़त्म। न जाने का वक़्त न आने का समय, किसी के लिए कोई ज़िम्मेदारी ही फील नही होती थी उसे।
मेरा बहुत मन करता है कि पास बैठे हाल चाल पूछे अपनी सुनाएँ मेरी सलाह ले, पर वो ऐसा नहीं करता है इसलिए अब बेहद अकेला महसूस करने लगा हूँ।
आज भी बेटा बहुत लेट आया और मेरे घर का दरवाजा खोलने के बाद बिना मेरी ओर देखे अपने कमरे में जा कर ज़ोर से दरवाजा बंद कर लिया।
रात के डेढ़ बजे हैं, डैड की दशकों पहले लिखी डायरी हाथ लग गयी थी वही पढ़ रहा हूँ, लिखा है ..
"आज बेटा फिर देर से लौटा। उसे पता है कि मैं ख़ुश नही होता उसके देर रात घर लौटने से। दरवाज़ा खोला पर वो रुका नही, उड़ती सी नज़र डाल कर अपने कमरे में गया और दरवाज़ा धड़ाम से बन्द कर लिया। लगा जैसे मेरे मुँह पर ही दे मारा हो। उसके इस व्यवहार ने मुझे तोड कर रख दिया बेहद पीड़ा हुई है, आज बहुत अपमानित ... ."
पन्ने पर आगे के शब्द अस्पष्ट से थे शायद उन पर गिरी बूँदों से धुल कर कागज़ में समा गए होंगे।
उन्ही धुँधले अक्षरों पर आज मेरी ताज़ी गरम बूंदें गिर कर जैसे सॉरी बोल रहीं थीं पर आज क्षमा करता कौन? मुझे उस वक़्त डैड के साथ अपने किये की सजा आज मेरा बेटा दे रहा था।

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