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ग़ज़ल

कुसुम शर्मा


ये चाँदी की सी चमकीली हवाएं
चली हैं आज बर्फ़ीली हवाएं
बहे अश्क़ों के दरिया हैं कहीं पर
नमी से हो रहीं गीली हवाएं
असर ये तर्क-ए-त'अल्लुक़ का है शायद
लगी हैं आज ज़हरीली हवाएं
किये जाती हैं सीना चाक सा कुछ
ये ख़ंजर से भी नोकीली हवाएं
हैं बदले रुख़ जहां वालों ने जब से
नहीं चलती हैं शर्मीली हवाएं।

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