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चुभन

विजय शंकर प्रसाद


कल घुँघरू और घूंघट पर शुरू बात,
कभी दोनों से ख़ता और फिर तहक़ीक़ात।
सल्तनत हेतु कई दफ़ा और इल्ज़ामात,
गिरफ़्त हेतु पिंजर और सियासी रहे बिसात।
हसीनाओं से ये सब आख़िर हुए मालुमात,
हुस्न के जरिये इश्क परिभाषित नहीं साक्षात।
किताब से भ्रमित और गुलाब़ पर दृष्टिपात,
काँटों का चुभन से असहमति नहीं अज्ञात।
नाहक़ दौड़ और दख़ल कब है सपाट,
अजनबी न सवाल तो क्यों फिसला ख़्यालात?
हमें आँसुओं से कहाँ पर नहीं मुलाकात,
कोरी कल्पना है क्या हँसी की बरसात?
सूरज के उदय-अस्त पर क्या अब शह-मात,
नमन से हंसों का जोड़ा क्या विख्यात?
क्यों आज़ हो प्रियतमा आख़िरी बैठक आपात,
क्या हुआ कश्तियों के डूबने के पश्चात?
नदी के किनारे मंदिर तो कब व्याघात,
भीड़ शाम में और सुबह-सुबह क्या-क्या आत्मसात?
शरारत की क्या यामिनी और कब बहुबात,
मौन हो किरदारों ने क्या दिया सौगात?

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