मीनाक्षी चौहान
कितने दिन हो गये थे फिर भी मम्मी जी बात-बात पर भावुक हो कर रो पड़तीं। नानी सास को गुजरे महीने भर से ज्यादा हो गया था पर जब-तब मम्मी जी की आँखों में आँसू देखकर मेरा मन भी भर आता। इधर मम्मी जी और उधर मेरी अपनी दादी दोनों के लिये ये बड़ा कठिन समय था। मम्मी जी की माँ थीं तो मेरी दादी की बेस्ट फ्रेंड। दादी और नानी सास दोनों कॉलेज के दिनों की साथी थी। उन दोनों ने ही अपनी दोस्ती को मेरी शादी से रिश्तेदारी में बदला।
दो दिन बाद करवाचौथ है। एक तो घर में कोई रौनक नहीं ऊपर से आज माँ ने फ़ोन करके मेरी ससुराल आने से मना कर दिया। हर साल तो करवाचौथ पर आतीं हैं इस बार उनका यूँ मना कर देना मेरी समझ से परे था। बेमन सी मैं काम निपटा रही थी कि बैल बजी, दरवाजा मम्मी जी ने खोला। ये क्या......दादी इस समय यहाँ पर। मम्मी जी मेरी दादी से लिपट कर बिलख पड़ी।
"रोती क्यूँ है....मैं हूँ ना।" उनके बेकाबू आँसुओं को दादी ने अपने आँचल में समेट लिया। मम्मी जी थोड़ा सहज हुईं।
"देख तो तेरे लिये क्या लायी हूँ।" दादी कागज के थैले से लाल-पीली लहरिया गोटेदार साड़ी निकाल कर मम्मी जी को देते हुए बोलीं।
"ये साड़ी.........।" मम्मी जी चौंक सी गईं।
"क्या हुआ?" दादी ने हैरानी से पूछा।
"बिल्कुल ऐसी ही साड़ी का मन था मेरा। माँ से इस बार देने के लिये बोलती पर माँ तो....... ।"
"दिल छोटा नहीं करते, समझ ले तेरी माँ ही लायी है। त्योहार का समय है ना बस खुशी-खुशी उसकी तैयारी कर।" दादी मम्मी जी सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोलीं।
"और दादी मेरी साड़ी।"
"ओह! तेरे लिये तो लाना ही भूल गयी।"
"पर आप मुझे तंग करना कभी नहीं भूलोगी।" कहते हुए मैनें झट से दूसरे थैले से अपनी वाली साड़ी निकाल ली।
हम दोनों दादी-पोती की चुहलबाजी देखकर मम्मी जी मुस्कुरा पड़ी। हाय! उनकी इस मुस्कुराहट पर तो मैं वारी-वारी जाऊँ। आखिर घर की रौनक मम्मी जी की मुस्कुराहट के साथ धीरे-धीरे वापस जो आ रही थी।
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