मुकेश ‘नादान’
विद्यालय में पढ़ने के समय ही नरेंद्रनाथ की वाक्य शक्तिजागृत हो गई थी। एक बार मेट्रोपोलिटन इंस्टीट्यूट में पुरस्कार वितरण के लिए जो सभा आयोजित हुई, उसके साथ ही एक प्रिय शिक्षक की सम्मानपूर्वक विदाई का आयोजन हुआ। छात्रों ने कहा कि उनकी ओर से नरेंद्र को विदाई अभिभाषण देना होगा, और वह भी अँगरेजी में।
नरेंद्र उन दिनों अँगरेजी भाषा और साहित्य का गहन अध्ययन करता था और मित्रों ने उसको सुना भी था। किंतु वह एक सामान्य बात थी और प्रकट रूप में सभा में भाषण देना अलग बात थी, जिसका सभापतित्व का पद सुशोभित कर रहे थे श्रीयुत सुरेंद्रनाथ बंद्योपाध्याय। आखिर निर्भीक नरेंद्र सहमत हुआ और यथा अवसर खड़े होकर आधे घंटे तक उक्त शिक्षक के स्थानांतरण से छात्रगण कितने दुखी हैं और विद्यालय की कितनी क्षति हुई आदि विषयों पर विशुद्ध एवं सुललित अँगरेजी भाषा में व्याख्यान दिया।
उसके भाषण के बाद सभापति महोदय ने नरेंद्र की प्रशंसा की। बहुत दिनों के बाद स्वामीजी की वक््तृताशक्ति के विषय में सुरेंद्रनाथ ने अपना मंतव्य प्रकट किया था, “भारतवर्ष में मैंने जिन वक्ताओं को देखा है, उनमें वे सर्वोत्तम थे।” इसमें आश्चर्यचकित होने की कोई बात नहीं है, क्योंकि भगवान् तभी से उन्हें अपने हाथों से गढ़ रहे थे तथा अनेक परिस्थितियों के द्वारा उनकी शक्ति के उद्घाटन की व्यवस्था कर रहे थे।
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