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अंतिम प्रथम!

निरंजन धुलेकर

सालों बाद लौटा था माँ बाबूजी के पास और अब हमेशा यहीं रहूँगा इसलिए बेहद ख़ुश भी था। कुछ हफ्ते तो खूब मज़े से निकल गए बातों गप्पो में पर फिर एक बात साफ़ हो गयी कि मुझे उन दोनों की और उनको मेरी, आदत ही नही थी।
पहले मेरे होस्टल जाने और फिर वहीं से नौकरी पर बाहर रहने की वजह से वो दोनों दसियों सालोँ से अकेले ही रहे। मैं अकेला ही रहता आया एक कमरे की आदत वाला।
रूटीन में दखलंदाजी की मुझे भी आदत नहीं थी। पर अब घर मे लोग थे तीन और कमरे थे चार तो कभी-कभी हो जाता था टकराव। फ़िर दोनों तरफ उठती खीज और गुस्सा।
मैं गुस्से में अक्सर मैं छत पर जा बैठता क्यूंकि उम्र के मारे वो दोनों छत पर नही चढ़ पाते थे। उस दिन भी मैं छत पर ही बैठा था।
नज़र एक जगह जा कर टिक गई। छज्जे पर बना गौरैया का गुलजार घोसला आज एकदम ख़ाली था। सोचने लगा क्या हुआ कहाँ उड़ गए सब के सब। कितना बियावान भयानक लग रहा था बड़े कटोरे जितना घोंसला।
अचानक महसूस किया कि अभी तो माँ बाबूजी हैं टोकने डाँटने हक़ से बुलाने काम बताने के लिए उनकी आवाज़ों की वजह से ही तो ये घर भरा-भरा है।
पर तब क्या होगा जब सूनसान ख़ाली कमरों के सन्नाटों को चीरती आयेंगी उनकी यादें और मच जाएगी मेरे पश्चाताप और आँसुओं की चीख़ पुकार।
मैं अंजाने डर से सिहर उठा और झट से नीचे आ गया।
मुझे लगा अपने इस घरौंदे में मुझे पूरा ढलना बसना और रमना होगा उनके तौर तरीकों को सीखना, अपनाना होगा।
आख़िरकार उन दोनों के लिए मैं ही तो था उनका प्रथम भी और अंतिम भी।

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