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अदल बदल

आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास

चैप्टर 1


माया भरी बैठी थी। मास्टर हरप्रसाद ने ज्योंही घर में कदम रखा, उसने विषदृष्टि से पति को देखकर तीखे स्वर में कहा – ‘यह अब तुम्हारे आने का समय हुआ है? इतना कह दिया था कि आज मेरा जन्मदिन है, चार मिलने वालियाँ आयेंगी, बहुत कुछ बंदोबस्त करना है, ज़रा जल्दी आना। सो, उल्टे आज शाम ही कर दी।’
‘पर लाचारी थी प्रभा की माँ, देर हो ही गई!’
‘कैसे हो गई? मैं कहती हूँ, तुम मुझसे इतना जलते क्यों हो?
इस तरह मन में आंठ-गांठ रखने से फ़ायदा? साफ क्यों नहीं कह देते कि तुम्हें मैं फूटी आँखों भी नहीं सुहाती!’
‘यह बात नहीं है प्रभा की माँ, तनख्वाह मिलने में देर हो गई। एक तो आज इंस्पेक्टर स्कूल में आ गए, दूसरे आज फीस का हिसाब चुकाना था, तीसरे कुछ ऑफिस का काम भी हैडमास्टर साहब ने बता दिया, सो करना पड़ा। फिर आज तनख्वाह मिलने का दिन नहीं था, कहने-सुनने से हैडमास्टर ने बंदोबस्त किया।’
‘सो उन्होंने बड़ा अहसान किया। बात करनी भी तुमसे आफ़त है। मैं पूछती हूँ कि देर क्यों कर दी? आप लगे आल्हा गाने। देखूं, रुपये कहाँ हैं?
मास्टर साहब ने कोट अभी-अभी खूटी पर टांगा ही था, उसके जेब से पर्स निकालकर आंगन में उलट दिया। दस-दस रुपये के चार नोट जमीन पर फैल गए। उन्हें एक-एक गिनकर माया ने नाक-भौं चढ़ाकर कहा – ‘चालीस ही हैं, बस?’
‘चालीस ही पाता हूँ, ज्यादा कहाँ से मिलते?’
‘अब इन चालीस में क्या करूं? ओढूं या बिचाऊं? कहती हूँ, छोड़ दो इस मास्टरी की नौकरी को, छदाम भी तो कार की आमदनी नहीं है। तुम्हारे ही मिलने वाले तो हैं वे बाबू तोताराम, रेल में बाबू हो गए हैं। हर वक्त घर भरा-पूरा रहता है। घी में घी, चीनी में चीनी, कपड़ा-लत्ता, और दफ्तर के दस बुली चपरासी, हाजिरी भुगताते हैं वह जुदा। वे क्या तुमसे ज्यादा पढ़े हैं? क्यों नहीं रेल-बाबू हो जाते?’
‘वे सब तो गोदाम से माल चुराकर लाते हैं प्रभा की माँ। मुझसे तो चोरी हो नहीं सकती। तनख्वाह जो मिलती है, उसी में गुजर-बसर करनी होगी।
‘करनी होगी, तुमने तो कह दिया। पर इस महंगाई के जमाने में कैसे?
‘इससे भी कम में गुज़र करते हैं लोग प्रभा की माँ।’
‘वे होंगे कमीन, नीच। मैं ऐसे छोटे घर की बेटी नहीं हूँ।’
‘पर अपनी औकात के मुताबिक ही तो सबको अपनी गुजर-बसर करनी चाहिए। इसमें छोटे-बड़े घर की क्या बात है? अमीर आदमी ही बड़े आदमी नहीं होते, प्रभा की माँ।’
‘ना, बड़े आदमी तो तुम हो, जो अपनी जोरू को रोटी-कपड़ा भी नहीं जुटा सकते। फिर तुम्हें ऐसी ही किसी कछारिन-महरिन से ब्याह करना चाहिए था। तुम्हारे घर का धंधा भी करती, इधर-उधर चौका-बरतन करके कुछ कमा भी लाती। बी०ए०, एम०ए० होते, तो वह भी बी०ए०, एम०ए० आ जाती और दोनों ही बाहर मजे करते। क्या ज़रूरत थी, गृहस्थ बसाने की?’
मास्टर साहब चुप हो गए। वे पत्नी से विवाद करना नहीं चाहते थे। कुछ ठहरकर उन्होंने कहा – ‘जाने दो प्रभा की माँ, आज झगड़ा मत करो।’ वे थकित भाव से उठे, अपने हाथ से एक गिलास पानी उड़ेला और पीकर चुपचाप कोट पहनने लगे। वे जानते थे कि आज चाय नहीं मिलेगी। उन्हें ट्यूशन पर जाना था।
माया ने कहा – ‘जल्दी आना, और टयूशन के रुपये भी लेते आना।’
मास्टरजी ने विवाद नहीं बढ़ाया। उन्होंने धीरे से कहा – ‘अच्छा!’ और घर से बाहर हो गए।‘
बहुत रात बीते जब वे घर लौटे, तो घर में खूब चहल-पहल हो रही थी। माया की सखी-सहेलियाँ सजी-धजी गा-बजा रही थीं। अभी उनका खाना-पीना नहीं हुआ था। माया ने बहुत-सा सामान बाजार से मंगा लिया था। पूड़ियाँ तली जा रही थीं और घी की सौंधी महक घर में फैल रही थी।
पति के लोट आने पर माया ने ध्यान नहीं दिया। वह अपनी सहेलियों की आवभगत में लगी रही। मास्टर साहब बहुत देर तक अपने कमरे में पलंग पर बैठे माया के आने और भोजन करने की प्रतीक्षा करते रहे, और न जाने कब सो गए।
प्रातः जागने पर माया ने पति से पूछा – ‘रात को भूखे ही सो रहे तुम, खाना नही खाया?’
‘कहाँ, तुम काम में लगी थीं, मुझे पड़ते ही नींद आई, तो फिर आँख ही नहीं खुली।’
‘मैं तो पहले ही जानती थी कि बिना इस दासी के लाए तुम खा नहीं सकते। रोज ही चाकरी बजाती हूँ। एक दिन मैं तनिक अपनी मिलने वालियों में फंस गई तो रूठकर भूखे ही सो रहे। सो एक बार नहीं सौ बार सो रहो, यहाँ किसी की धौंस नहीं सहने वाले हैं।’
‘नहीं प्रभा की माँ, इसमें धौंस की क्या बात है? मुझे नींद आ ही गई।’
‘आ गई तो अच्छा हुआ, अब महीने के खर्च का क्या होगा?’
‘ट्यूशन ही के बीस रुपये जेब में पड़े हैं, उन्हीं में काम चलाना होगा।’
‘ट्यूशन के बीस रुपये? वे तो रात काम में आ गए। मैंने ले लिए थे।
‘वे भी खर्च कर दिए?’
‘बड़ा कसूर किया, अभी फांसी चढ़ा दो।’
‘नहीं, नहीं, प्रभा की माँ, मेरा ख़याल था, चालीस रुपयों में तुम काम चला लोगी, बीस बच रहेंगे। इससे दब-भींचकर महीना कट जायेगा।’
‘यह तो रोज का रोना है। तकदीर की बात है, यह घर मेरी ही फूटी तकदीर में लिखा था। पर क्या किया जाए, अपनी लाज तो ढकनी ही पड़ती है। लाख भूखे-नंगे हों, परायों के सामने तो नहीं रह सकते। वे सब बड़े घर की बहू-बेटियाँ थीं, कोई खटीक-चमारिन तो थी ही नहीं। फिर साठ-पचास रुपये की औकात ही क्या है?’
मास्टर साहब चिंता से सिर खुजलाने लगे। उन्हें कोई जवाब नहीं सूझा। महीने का खर्च चलेगा कैसे, यही चिंता उन्हें सता रही थी। अभी दूध वाला आएगा, धोबी आएगा। वे इस माह में जूता पहनना चाहते थे, बिल्कुल काम लायक न रह गया था। परन्तु अब जूता तो एक ओर रहा, अन्य आवश्यक खर्च की चिंता सवार हो गई।
पति को चुप देखकर माया झटके से उठी। उसने कहा – ‘अब इस बार तो कसूर हो गया भई, पर अब किसीको न बुलाऊंगी। इस अभागे घर में तो पेट के झोले को भर लिया जाए, तो ही बहुत है।’
उसने रात का बासी भोजन लाकर पति के सामने रख दिया।

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