सरोज माहेश्वरी
लॉन में पंक्तिबद्ध कुर्सियां लगी थी। आज वृद्धाश्रम की संख्या में एक अंक और बढ़ऩे वाला था। नियमानुसार नवीन आगन्तुक को अपने साथियों के समक्ष अपना परिचय देना होता हैं। काले शूट बूट में एक़ स्मार्ट ज्येष्ठ नागरिक का आगमन हुआ। जोरदार तालियों से साथियों ने स्वागत किया। बिना भूमिका के रामनाथ जी ने बताया "मैं रामनाथ अरोरा" अपनी मर्जी से इस वृद्धाश्रम में आया हूं। एक वर्ष पूर्व पत्नी राधा का देहान्त हृदयगति रुक जाने से हो गया। जीवन में एकाकीपन छा गया। बच्चे अपनी-अपनी जिम्मेदारियों में व्यस्त हैं। मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं है। धन, नौकर चाकर, गाड़ी, घर की कोई कमी नहीं है। यह एकाकीपन मुझे कहीं अवसाद में न पहुंचा दे, इससे बचने के लिए मैंने हमउम्र साथिय़ों के साथ रहने का निर्णय लिया है। कविता, कहानी, लेख लिखता हूं। दो लाइन सुनाना पंसद करूँगा।
जीवन की इस संध्या में, हम कहीं गुम न हो जाएं।
जी ले जी भर के हम, आओ साथ-साथ गुनगुनाएँ।।
सदा शांत रहने वाली पुष्पादेवी अपनी डायरी में कुछ न कुछ लिखती रहती थीं। पति के मृत्यु के उपरांत वह भी इस आश्रम में आईं थीं। प्रत्युत्तर में पुष्पादेवी ने साहस करके अपनी लिखी लाइन बोलते हुए कहा।
चलो अब हम सब मिलकर, कुछ ऐसा कर दिखाएं।
याद करे ये ज़माना, अपनी बेबसी पे न आंसू बहाएं।।
तालियों से ऐसा शमा बंधा गया। अब तो अक्सर रामनाथ जी एवं पुष्पाजी एक साथ देखे जाते, एक दूसरे को अपने लिखे उद्गार सुनाते। एक दूसरे का सानिध्य दोनों को रास आने लगा और न जाने कब दोनों की "आँखें चार हो गईं" पता ही न चला। आश्रम में लोग गलत नज़ारों से देखने लगे, परन्तु वे दोऩों मानसिक एवं भावनात्मक रूप से एक दूसरे के समीप आ गए थे। एक दूसरे के बिना रहना अब उन्हें असम्भव लगने लगा। उनका यह प्यार कहीं बदनामी की डगर पर न बढ़ जाए, वे शादी करके अपने प्यार के नाम देना चाहते थे। शादी करके दोनों ने एक साथ रहने का निर्णय किया तो बेटों ने पुरज़ोर विरोध दिया। राजनाथ जी के पोते प्रशांत और पुष्पादेवी के पोते राघव को जब दादा-दादी की पवित्र प्रेम कहानी का पता लगा तब दोनों के पोतों ने पूरी जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेकर कोर्ट और समाज में ससम्मान ऐसे अद्भुत प्रेमियों को मिलाकर पुण्य का काम किया।
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