दीपशिखा
लैपटॉप लेकर बैठी है चुनमुनिया खलिहान में,
दृश्य बदलते देख रही हूँ अपने हिंदुस्तान में...
गूगल की दुनिया से जाने दुनिया का विस्तार,
कच्चे घर में बैठ घूमती सात समुंदर पार।
डर के आगे जीत लिखी है लक्ष्य पूर्ति की आस,
दौलत की ताक़त पर भारी होगा दृढ़ विश्वास।
इक दिन महल दण्डवत होगा कुटिया के सम्मान में....
दृश्य बदलते देख रही हूँ...
हर कक्षा में टॉपर रहना शीश उठाकर जीना,
सीख गई है मुस्कानों से दुख का दामन सीना।
उड़ने को आकाश मिला स्पेस जेट के सपने,
गर्व भरी आंखों से तकते बूढ़े बरगद अपने।
सोच रहे हैं हीरा निकला कोयले की खदान में...
दृश्य बदलते देख रही हूँ...
पक्की सड़कें महानगर की ले आईं हैं साथ,
ऊंची शिक्षा की वनिता ने थाम लिया है हाथ।
प्रतिभा से अवसर का होता देख लिया गठबंधन,
आज रही विस्मित आंखों में आशाओं का अंजन।
माँ बापू की फोटो रखकर लाई है सामान में...
दृश्य बदलते देख रही हूँ...
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