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अपना फर्ज

रमाकांत अवस्थी

ये क्या कर रही हो निशा तुम। अपनी पत्नी निशा को कमरे में एक और चारपाई बिछाते देख मोहन ने टोकते हुए कहा। निशा, मां के लिए बिस्तर लगा रही हूं आज से मां हमारे पास सोएगी। मोहन-क्या, तुम पागल हो गई हो क्या?
यहां हमारे कमरे में और हमारी प्राइवेसी का क्या?
और जब अलग से कमरा है उनके लिए तो इसकी क्या जरूरत।
निशा-जरूरत है मोहन, जब से बाबूजी का निधन हुआ है तबसे मां का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता। तुमने तो स्वयं देखा है पहले बाबूजी थे तो अलग कमरे में दोनों को एकदूसरे का सहारा था। मगर अब मोहन बाबूजी के बाद मां बहुत अकेली हो गई है। दिन में तो मै आराध्या और आप उनका ख़्याल रखने की भरपूर कोशिश करते है। ताकि उनका मन लगा रहे वो अकेलापन महसूस ना करे। मगर रात को अलग कमरे में अकेले, नहीं वो अबसे यही सोएगी।
मोहन-मगर अचानक ये सब कुछ समझ नहीं पा रहा तुम्हारी बातों को।
निशा - मोहन हर बच्चे का ध्यान उसके माता पिता बचपन में रखते हैं। सब इसे उनका फर्ज कहते हैं। वैसे ही बुढ़ापे में बच्चों का भी तो यही फर्ज होना चाहिए ना। और मुझे याद है, मेरा तो दादी से गहरा लगाव था। मगर दादी को मम्मी पापा ने अलग कमरा दिया हुआ था। और उस रात दादी सोई तो सुबह उठी ही नहीं। डाक्टर कहते थे कि आधी रात उन्हें अटैक आया था, जाने कितनी घबराहट परेशानी हुई होगी और शायद हम में से कोई वहां उनके पास होता तो शायद दादी कुछ और वक्त हमारे साथ। मोहन जो दादी के साथ हुआ वो मैं मां के साथ होते हुए नहीं देखना चाहती। और फिर बच्चे वहीं सीखते हैं जो वो बड़ो को करते देखते हैं। मैं नहीं चाहती कल आराध्या भी अपने ससुराल में अपने सास ससुर को अकेला छोड़ दे। उनकी सेवा ना करें। आखिर यही तो संस्कारों के वो बीज है जोकि आनेवाले वक्त में घनी छाया देने वाले वृक्ष बनेंगे।
मोहन उठा और निशा को सीने से लगाते बोला - मुझे माफ करना निशा, अपने स्वार्थ में मै अपनी मां को भूल गया अपने बेटे होने के फर्ज को भूल गया और फिर दोनों मां के पास गए और आदरपूर्वक उन्हें अपने कमरे में ले आए।

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