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आ बैल मुझे मार

नताशा हर्ष गुरनानी

जेठानी के बेटे की शादी थी।
मैं भी बहुत खुश थी इस शादी से, आखिर मेरा भी तो प्रमोशन होने वाला था, मैं भी चाची से चाची सास बनने वाली थी।
मन ही मन ये खुशी बहुत गुदगुदा रही है।
फोन पर हर काम में बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रही थी, सलाह दे रही थी।
ये लेना, वो लेना, ये साड़ी दिलाना, और भी ना जाने क्या क्या।
भाभी (जेठानी) का फोन आया और बोली "वही से सब बताएगी या यहां भी आएगी और इन सब कामों में मेरी मदद भी करेगी।"
मैं "हां भाभी आती हूं बस कल ही पहुंचती हूं।" खुशी-खुशी मैं भी बोल पड़ी।
भाभी "हां अब शादी तक यही रहना है।"
मैं "हां भाभी"
बस में बैठते ही मन ही मन सोचने लगी कि इस मार्केट जाऊंगी, उस मार्केट जाऊंगी, मैं अपनी खरीदारी भी करूंगी, भाभी को मेरी पसंद बहुत अच्छी लगेगी, नई बहु आएगी तो उसे भी भाभी बताएंगी कि ये तुम्हारी चाची की पसंद है, वो चाची ने पसंद किया है। ऐसा सोचते-सोचते पहुंच गई वहां।
जाते ही भाभी ने कहा "अब लग जा काम पर बहुत काम है।"
"हां भाभी कहिए क्या क्या करना है मुझे"
भाभी "देख मैं किसी और पर भरोसा तो नही कर सकती पर हां तुम तो मेरी अपनी हो, कहने को देवरानी हो पर छोटी बहन के समान ही हो तो शादी तक घर और रसोई तुम्हारे हवाले और मैं और रिनी (उनकी बेटी) बाजार का देख लेती है।"
मुझे तो शब्द ही नही मिल रहे थे कि क्या कहूं पर खुद पर गुस्सा बहुत आ रहा था कि अपनी हड़कपदुड़ी में मै खुद को ही बैल के हवाले कर दिया कि आ बैल मुझे मार।

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