top of page

आगमन एक बसंत का

रीता कुमारी

कॉलेज में दशहरे की पूरे दस दिनों की छुट्टी हो गई थी। त्योहार मनाने के लिए अच्छा-ख़ासा समय मिल गया था। सभी ख़ुश थे। हंस-बोल रहे थे। सब को घर जाने की जल्दी भी थी। स्टाफ रूम समय से पहले ही खाली हो चुका था। बरामदे में सब एक-दूसरे को त्योहार की बधाइयां दे रहे थे, पर माधवी का मन तिनका-तिनका बिखर रहा था। वह अतीत के गलियारे में भटक रही थी। वैसे भी उसका जीवन एक उद्देश्यहीन भटकाव ही तो रह गया है।
जिन अपने दोनों भाई-बहन कुंदन और नेहा के लिए वह दिन-रात मेहनत करती रही, जिनके लिए उसने अपना पूरा करियर और जीवन दांव पर लगा दिया, उन्हीं दोनों को क्या उसकी यातना का रत्ती भर भी ख़्याल था?
कभी उसका भी सुखी परिवार था। भले ही उसके पापा कम कमाते थे, पर बच्चों की ज़रूरतों का उन्हें हमेशा ख़्याल रहता था। यह अलग बात थी कि वह चाहते थे कि कुंदन आई. ए, एस. ऑफिसर बन जाए, जिसके कारण उस पर कुछ ज़्यादा ख़र्च करते थे। कुंदन को महंगे कॉन्वेंट में पढ़ाने के लिए घर के सभी ख़र्चों में उन्हें कटौती करनी पड़ती थी। बेटियां साधारण स्कूल में ही पढ़ती थी, पर उनकी पढ़ाई का भी पूरा ख़्याल रखते थे। देखते-देखते समय निकल गया और माधवी एम. एस. सी. पूरा कर पीएचडी में रजिस्ट्रेशन के लिए प्रयास कर रही थी। उन्हीं दिनों उसकी मुलाक़ात आलोक से हुई थी, जो पीएचडी कर रहा था। जल्दी ही दोनों की दोस्ती प्यार में बदल गई थी। पर इस प्यार को शादी में बदलना बहुत ही मुश्किल था। काफ़ी जद्दोज़ेहद के बाद पापा रूढ़ियों और परंपराओं की संर्कीणता से बाहर आ अपनी बेटी की ख़ुशी के लिए विजातीय लड़का आलोक से उसकी शादी के लिए तैयार हुए थे, पर एक शर्त पर कि मंगनी तो अभी होगी, पर शादी होगी आलोक को नौकरी मिलने के बाद। फिर दोनों परिवारों की सहमती से मंगनी हो गई थी, लेकिन नियति को माधवी की ख़ुशी कभी रास नहीं आई।
फिर एक भयंकर रोड एक्सीडेंट हुआ और माधवी के पापा अनंत में विलीन हो गए। इसके साथ ही उसके परिवार पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। समाज के संकीर्ण दायरे में फंसे उसके मायके और होने वाले ससुराल के लोगों ने उसे अपशगुनी करार दे दिया। दुर्भाग्य के इस कठिन समय में सिर्फ़ एक आलोक ही था, जो हर तरह से उसके साथ था। वह अब भी माधवी से शादी करने और उसके परिवार की मदद करने के लिए तैयार था, पर यह माधवी के लिए निर्णय की घड़ी थी। अब उसके सामने उसकी मां गायत्री देवी थी, जो एक सीधी-सादी घरेलू और पूरी तरह पति पर निर्भर महिला थी। पापा के बाद वह दुख और संताप से बिस्तर पकड़ ली थी। छोटी बहन नेहा और भाई कुंदन का भविष्य भी दांव पर लगा था। सब का विश्वास उसी पर टिका था। वह ऐसी परिस्थिति में सबको छोड़कर भला कैसे शादी कर सकती थी। उसने फ़ैसला किया नियति ने जो उसके लिए निर्धारित किया है अब उसे उसी के साथ जीना है।
उसने तत्काल निर्णय लिया, अपने परिवार की डूबती नैया को वह ख़ुद पार लगाएगी। अपने पापा का स्थान लेगी। आलोक ने बहुत समझाया कि उससे शादी कर ले, पर माधवी नहीं मानी। शादी के बाद के पाबंदियों से वह अनजान नहीं थी। आलोक को उसने अपनी ज़िंदगी से बहूत दूर यह कहकर भेज दिया कि तुम कही और शादी कर अपनी ज़िंदगी नए सिरे से शुरू करो। तुम जहां कही भी रहोगे ख़ुश रहोगे, तो मैं भी ख़ुश रह पाऊंगी। उसके ज़िद के आगे हार कर आलोक उससे दूर चला गया।
अपनी पढ़ाई को तिलाजंली दे, वह जल्द ही एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने लगी थी। स्कूल के बाद वह टयूशन भी करने लगी, जिससे घर की गाड़ी पहले की तरह ही पटरी पर आ गई थी। नेहा और कुंदन पापा की तरह ही उसका सम्मान करते और हर बात में उसकी राय लेते। कुंदन की पढ़ाई में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। नेहा के कहने पर उसे भी कोचिंग क्लास में भेजने लगी थी। जैसे-जैसे घर के ख़र्चें बढ़ रहे थे उसकी व्यस्तता बढ़ती जा रही थी।
वह सारे पैसे मां को सौंप देती थी। नेहा और कुंदन को ज़रूरत के हिसाब से मां पैसे देती। कुछ दिनों तक तो सब ठीक-ठाक चला, पर जैसे दोनों कॉलेज में पहुंचे, दोनों के ही ख़र्च कुछ ज़्यादा ही बढ़ गए। घर का ढांचा ही बदलने लगा था। सारी सुविधा के बावजूद कुंदन की पढ़ाई का स्तर दिनोंदिन गिरते जा रहा था। उसकी सारी गतिविधियां ही बदलने लगी थी। अपने साथ पढ़ने वाले समृद्ध घर के लड़कों के साथ उसकी आवारागर्दी बढ़ने लगी थी। मां को तो वह कुछ समझता ही नहीं था। जिस दीदी के सामने आने से पहले घबराता था, अब उससे भी ज़ुबान लड़ाने लगा था। छोटी-छोटी बातों में जब माधवी उसे डांटती, तो सामने तन कर खड़ा हो जाता, ‘‘नहीं पढूंगा क्या कर लोगी। ज़्यादा रौब दिखाओगी तो घर छोड़ दूंगा।’’ अक्सर वह ऐसी ही बातों से अपनी दीदी को हतप्रभ कर देता।
उसकी समझ में नहीं आता क्या करें। उसे लगता मां के अत्यधिक लाड़-प्यार और चुप्पी ही कुंदन को बरबाद कर रहा था।
एक छुट्टी के दिन जब वह कुछ सामान लेकर लौट रही थी रास्ते में गायत्री चाची मिल गईं, जो मां के समान ही उसे प्यार करती थी। ज़िद कर अपने घर ले गई। घर पहुंचते ही उसे लिए हुए सीधे अपने बेडरूम में आ गईं और बिना किसी भूमिका के बोली, ‘‘तुम्हें कुछ पता भी है जिन दोनों भाई-बहन के लिए तू इतनी मेहनत कर रही हो, वे कर क्या रहे हैं? जब वही दोनों अपने लक्ष्य से भटक जाएंगे, तुम्हारी सारी मेहनत और त्याग व्यर्थ हो जाएगा।’’
एक अनजानी आशंका से उसका हृदय धड़क उठा, ’’मैं कुछ समझी नहीं…"
‘‘तुम्हारे इसी नासमझी का तो रोना है। तुमने कभी कुंदन की संगति पर ध्यान दिया है। बड़े-बड़े पैसे और रसूख वाले क्रिमिनल टाइप लोगों के बेटों के साथ उसकी दोस्ती है, जो किसी भी तरह के ग़लत काम करने से पीछे नहीं हटते।’’
‘‘और तुम्हारी नेहा वह भी कुछ कम नहीं है। जब देखो सक्सेना साहेब के लड़के विक्की के साथ यहां-वहां घूमती नज़र आती है। उस दिन ख़ुद मैंने उन दोनों को पटना के एक प्रसिद्ध होटल से बाहर निकलते देखा था। लड़का ढंग का होता, तो उन दोनों के शादी की बातें भी सोची जा सकती थी। विक्की इस मामले में कितना बदनाम है, यह बात किसी से छुपी नहीं हैं। जाने कैसे नेहा इसके जाल फंस गई हैं? तुम्हें सब कुछ बताना ज़रूरी हो गया था, इसलिए वरना…’’
सब कुछ सुनकर माधवी सन्न रह गई। काटो तो खून नहीं वाली स्थिति हो गई थी। गायत्री चाची के बदले कोई दूसरा होता, तो एक बार ज़रूर सोचती। पर गायत्री चाची कभी झूठ बोल ही नहीं सकती थी। वह चुपचाप उठकर घर चली आई। अपना बैग टेबल पर रख, कटे वृक्ष की तरह बिस्तर पर जा गिरी। वह देर तक तकिए में मुंह छुपाए फूट-फूट कर रोती रही। थोड़ी देर बाद मां के हाथों का स्पर्श पा वह चौंक पड़ी। यथा संभव अपने आंसू छुपाती उठ बैठी, पर मां को अंदाज़ा लग गया था कि जिस बात को वह पूरे छल-बल कौशल से अब तक इस बेटी से छुपाती आई थी, उसे उस बात की भनक लग गई है।
‘‘मां नेहा कहां हैं?"
माधवी की आवाज़ सुन गायत्री देवी को जैसे सांप सूंघ गया।
थोड़ी देर की चुप्पी के बाद उनके बोल फूटे, शायद अपने अंदर छुपा कर रखे गए बातों को कहने के लिए हिम्मत जुटा रही थीं।
‘‘क्या कहूं? इस लड़की ने तो कही मुंह दिखाने के लायक नही छोड़ा। तुम सुबह से शाम तक ख़ुद परेशान रहती हो, तो क्या बताती, इसकी करतूतें। मैंने ख़ुद कोशिश की पर उस लड़के ने नेहा से शादी करने से इंकार कर अपने पापों से हाथ झाड़ लिया। तब कोई उपाय नहीं देख आज ही सुबह के बस से हाजीपुर जाकर उसे सरला के पास छोड़ आई हूं।’’
माधवी को समझते देर नहीं लगी कि मां उसे सरला मौसी के पास क्यों छोड़ आई हैं? मां की चचेरी बहन सरला मौसी डॉक्टर थी। अक्सर मां के सुख-दुख में काम आती थी। अब शायद नेहा को उसके कलंक से मुक्त कराने में सहायक बनी थी। सब सुन माधवी को ऐसा लगा जैसे किसी ने गर्म सलाखें उसके सीने में उतार दिया हो। पापा के जाने के बाद से उसने कठिन परिश्रम कर दोनों भाई-बहन के जीवन को संवारने की हर संभव कोशिश की, क्योंकि कुंदन को लेकर पापा के अरमान हमेशा उसकी चेतना में रहें, पर सारे समीकरण जाने कब गड़बड़ा गए कुछ समझ नहीं पा रही थी।
एक हफ़्ते बाद मां नेहा को सरला मौसी के यहां से लेकर बड़े मामाजी के पास मोतिहारी छोड़ आई। इस घटना के दो महीने बाद अचानक एक दिन मां उससे बोली, ‘‘कहते तो मेरी ज़ुबान जलती है बिटिया, पर क्या करूं नेहा ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा। तू बड़ी है पर तुझसे छोटी बहन की शादी की बात करने आई हूं। तुम्हारे मामाजी ने नेहा की शादी के लिए कॉरपोरेशन में कार्यरत एक लड़के के घरवालों से बात की है। नेहा उन लोगों को पसंद है। तू थोड़ा कर्ज़ लेकर कुछ पैसे और गहने, जो पापा ने तुम्हारे लिए बनवाए थे, दे देती तो यह शादी निपट जाता। लड़के वालों की कोई मांग नहीं हैं।"
‘‘ठीक है… अम्मा। सारे गहने दे दो। ये सब अब मेरे किस काम के हैं। पैसों का इंतजाम भी कर दूंगी।’’
उसकी बातें सूल की तरह मां के कलेजे मे उतर गई। बड़ी बेटी की शादी की चर्चा किए बैगेर छोटी की शादी में उत्साह दिखना उन्हें ख़ुद शार्मिन्दा कर रहा था।
नेहा का जीवन व्यवस्थित करते-करते दूसरी पेरशानी आ खड़ी हुई। कुंदन को ड्रग्स बेचने के आरोप में पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया था। जेल से कुंदन के छूटने के कोई आसार नज़र नहीं आ रहे थे। तभी माधवी को याद आया, उसके पापा के एक पुराने घनिष्ट मित्र का बेटा उन दिनों पटना का एस.पी. था। माधवी ने जब उनसे बात की, तो उसके पापा का ख़्याल कर उन लोगों ने कुंदन को किसी तरह जेल से रिहा करवा दिया, पर इस शर्त के साथ कि वह अब उसे किसी काम-धंधा में लगाएं, ताकि वह पीछे मुड़ कर न देखे। कुंदन के जेल से रिहा होते ही गायत्री देवी उसे लेकर मुजफ्फरपुर चली गई, वहीं उन्होंने उसे अपने छोटे भाई के बिज़नेस में पार्टनर बना दिया। कुंदन और नेहा के अपने-अपने जीवन में व्यवस्थित करते-करते पटना का घर भी बिक गया। उसके साथ ही मां भी पटना छोड कुंदन के पास ही ज्यादातर रहने लगी।
इस बीच माधवी के लिए बस एक ही बात अच्छी हुई कि वह नेट क्वालिफाई कर गई, जिससे लेक्चरर की नौकरी उसे मिल गई। कॉलेज के कैंपस में ही घर भी मिल गया। कुंदन ने ख़ुद से शादी कर ली। मां और भी व्यस्त हो गई। अपने कहे जाने वाले सभी लोग माधवी से दूर हो गए। सभी अपने-अपने जीवन में व्यस्त थे। किसी को अब उसकी फिक्र नहीं थी। जिनके लिए सर्वस्व निछावर कर दी वे नि:संकोच अपनी मनमानी करते रहे, सिर्फ़ अपने लिए ही सोचते रहे। सअधिकार उससे रुपए-पैसे लेते रहते, पर उसकी भावनाओं का ख़्याल तक उन्हें नहीं रहता। फिर भी घर में वे लोग चाहे जैसा व्यवहार करें बाहर वालों के सामने उसे एक अच्छी बेटी और बहन का ख़िताब ही देते। दिन-प्रतिदिन माघवी के जीवन का सूनापन बढ़ता जा रहा था। माधवी को लगने लगा था उसका पूरा जीवन ही बिखर गया है।
कभी अपने परिवार की रक्षा के लिए वह चट्टान की तरह उनके सामने आ खड़ी हुई थी। आज वही चट्टान ज़िंदगी की तेज रफ़्तार में टूट-टूट कर बिखर रहा था, पर उसे समेटने वाला कोई नहीं था। कई लोग उसके जीवन के सूनेपन को देख उसे शादी कर लेने की सलाह देते, पर अब उसे घर-परिवार की चाह ही नहीं रही। ज़िंदगी अपनी रफ़्तार से चल रही थी। अचानक उसकी तंद्रा तब भंग हो गई, जब कॉलेज के एक स्टाफ ने आकर बताया कि स्टाफ रूम बंद करना है, सभी लोग जा चुके हैं। वह अपना बैग उठाए अपने फ्लैट की तरफ़ चल पड़ी। ताला खोलने जा ही रही थी कि उसकी नज़र सामने खड़े व्यक्ति पर पड़ी, जो शायद उसका पहले से इंतज़ार कर रहा था। दोनों की नज़रें मिली, तो उसे ऐसा लगा जैसे सारी कायनात ही थम गई हो। वह जड़वत सामने खड़े आलोक को निहार रही थी। तभी आलोक की आवाज़ ने उसे चौंका दिया।
‘‘यूं ही बाहर खड़े रखोगी या अंदर भी बुलाओगी।"
’’हां… हां… क्यूं नहीं अंदर आओ।" वह दरवाज़ा खोलते हुए बोली। ड्रॉइंगरूम में उसे बैठा, माधवी दो कप कॉफी बना लाई।
‘‘एक कप कॉफी उसकी ओर बढ़ाते हुए बोली, "अब बताओ फ़िलहाल अभी तुम कहां हो? क्या कर रहे हो? तुम्हारी पत्नी और बच्चे सब कैसे हैं?’’
एक ही सांस में उसने मन में उठते सारे सवाल पूछ लिए। आलोक हंसते हुए बोला, ‘‘ज़रा सांस लेकर पूछो। फ़िलहाल मैं यही के एक कालेज में ट्रांसफर लेकर आ गया हूं। अभी तक मैंने कोई शादी-वादी नहीं की है। अब पूछोगी क्यों? तो भई आज भी उस लड़की का इंतज़ार कर रहा हूं, जो अपने शादी का मंडप छोड़कर अपने भाई-बहनों के प्रति अपना फर्ज़ पूरा करने गई थी। आज मैं ख़ास उससे मिलकर यह पूछने ही यहां आया हूं कि क्या उसके सारे फर्ज़ पूरे हो गए?’’
‘‘हां आलोक, मैंने अपने सारे फर्ज़ पूरे किए फिर भी अब मेरे पास न कोई मेरा अपना है, न कोई अपना घर। मैं बिल्कुल अकेली हूं।‘‘ उसके आंसुओं से भीगे स्वर ने आलोक को अंदर तक हिला दिया।
‘‘ग़लत… पूरी तरह ग़लत। तुम्हारे रिश्ते-नाते भले ही पीछे छूट गए हो, पर एक दोस्ती का रिश्ता आज भी तुम्हारे साथ खड़ा है। तुम्हारे काम पूरे हो गए, तो चलो अपने उस घर में जहां तुम्हारा एक दोस्त आज भी इंतज़ार कर रहा है।’’
एक आत्मीय स्पर्श ने बरसों से दबे तृष्णा को पिघला दिया। माधवी की आंखों से आंसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा। थोड़ी देर दोनों यूं ही एक-दूसरे को थामे बैठे रहे। बरसों बाद माधवी को सुख और सुरक्षा का आभास हुआ था। यह पतझड़ के बाद बसंत के आगमन का आगाज़ था।

******

6 views0 comments

Recent Posts

See All

Comments


bottom of page