वीना उदय
दिनकर के आतप से आकुल
अवनि का आँचल है
तृषित है जन-जन,
व्याकुल तन-मन
ठाँव ढूँढते वन-वन।
लुप्त हुई मानो हरियाली,
सूखी पत्ती-पत्ती औ डाली
चिड़िया दुबक गई खोतों में,
दादुर हुए कूप मंडूक
सन्नाटे में उपवन।
पिक मानो हुई काक समान,
नहीं सुनाती रसमय गान
मेहप्रिये ने नर्तन त्यागा,
तनिक नहीं उल्लास है जागा
कुपित है क्यों घनश्याम।
सिंह, ब्याल, गजराज रीछ,
सारे सामिष और निरामिष
बैठ सघन - वन सरवर तीरे,
एक दूजे के हुए हितैषी
दिनकर दीपक राग सुनाए।
त्राहि माम जन-जन ने पुकारा,
वृष्टि यज्ञ कर मघवा को पुकारा
आए देवेंद्र, आए पुरंदर,
मेघों पर कर आरोहण
मेघ मल्हार गाएँ हर्षित जन।
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