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आधा गांव

ऊँघता शहर

राही मासूम रज़ा


गाजीपुर के पुराने किले में अब एक स्कूल है जहाँ गंगा की लहरों की आवाज तो आती हैं, लेकिन इतिहास के गुनगुनाने या ठंडी साँसें लेने की आवाज नहीं आती। किले की दीवारों पर अब कोई पहरेदार नहीं घूमता, न ही उन तक कोई विद्यार्थी ही आता है, जो डूबते हुए सूरज की रोशनी में चमक्षमाती हुई गंगा से कुछ कहे या सुने।
गँदले पानी की इस महान्‌ धारा को न जाने कितनी कहानियाँ याद होंगी। परन्तु माँएँ तो जिनों, परियों, भूतों और डाकुओं की कहानियों में मगन हैं और गंगा के किनारे न जाने कब से मेल्हते हुए इस शहर को इसका खयाल भी नहीं आता कि गंगा के पाठशाले में बैठकर अपने पुरखों की कहानियाँ सुने।
यह असंभव नहीं कि अगर अब भी इस किले की पुरानी दीवार पर कोई आ बैठे और अपनी आँखें बंद कर ले तो उस पार के गाँव और मैदान और खेत घने जंगलों में बदल जायँ और तपोबन में ऋषियों की कुटियाँ दिखायी देने लगें। और वह देखे कि अयोध्या के दो राजकुमार कंधे से कमानें लटकाये तपोवन के पवित्र सन्‍नाटे की रक्षा कर रहे हैं।
लेकिन इन दीवारों पर कोई बैठता ही नहीं। क्योंकि जब इन पर बैठने की उम्र आती है तो गजभर की छातियोंवाले बेरोजगारी के कोल्हू में जोत दिये जाते हैं कि वे अपने सपनों का तेल निकालें और उस जहर को पीकर चुपचाप मर जायेँ।
लगा झूलनी का धक्का
बलम कलकत्ता चले गये।
कलकत्ता की चटकलों में इस शहर के सपने सन के ताने-बाने में बुनकर दिसावर भेज दिये जाते हैं और फिर सिर्फ ख़ाली आँखें रह जाती हैं और वीरान दिल रह जाते हैं और थके हुए बदन रह जाते हैं, जो किसी अँधेरी -सी कोठरी में पड़े रहते हैं और पगड्डंडियों, कच्चे-पक्के तालाबों, धान, जौ और मटर के खेतों को याद करते रहते हैं।
कलकत्ता!
कलकत्ता किसी शहर का नाम नहीं है। गाजीपुर के बेटे-बेटियों के लिए यह भी विरह का एक नाम है। यह शब्द विरह की एक पूरी कहानी है, जिसमें न मालूम कितनी आँखों का काजल बहकर सूख चुका है। हर साल हजारों-हजार परदेस जानेवाले मेघदूत द्वारा हजारों-हजार संदेश भेजते हैं। शायद इसीलिए गाजीपुर में टूटकर पानी बरखता है और बरसात में नयी-पुरानी दीवारों, मस्जिदों और मन्दिरों की छतों और स्कूलों की खिड़कियों के दरवाजों की दरार में विरह के अंखुए फूट आते हैं, और जुदाई का दर्द जाग उठता है और गाने लगते हैं
बरसत में कोऊ घर से ना निकले
तु्महि अनूक बिदेस जबैया
कलकत्ता, बंबई, कानपुर और ढाका-इस शहर की हदें हैं। दूर तक फैली हुई हदें “यहाँ के रहनेवाले यहाँ से जाकर भी यहीं के रहते हैं। गुब्बारे आकाश में चाहे कितनी दूर निकल जाये परंतु अपने केन्द्र से उनका संबंध नहीं टूटता, जहाँ किसी बच्चे के हाथ में निर्बल धागे का एक सिरा होता है।
इधर कुछ दिनों से ऐसा हो गया है कि बहुत से बच्चों के हाथों से यह डोर डूट गयी है।
यह कहानी, सच पूछिये तो, उन्हीं गुब्बारों की है या शायद उन बच्चों की है जिनके हाथों में मरी हुई डोर का एक सिरा है और जो अपने गुब्बारों की तलाश कर रहे हैं और जिन्हें यह नहीं मालूम कि डोर टूट जाने पर उन गुब्बारों का अंजाम क्‍या हुआ।
गंगा इस नगर के सिर पर और गालों पर हाथ फेरती रहती है, जैसे कोई माँ अपने बीमार बच्चे को प्यार कर रही हो, परंतु जब इस प्यार की कोई प्रतिक्रिया नहीं होती, तो गंगा निलख-जिलखकर रोने लगती है और यह नगर उसके आँसुओं में डूब जाता है। लोग कहते हैं कि बाढ़ आ गयी। मुसलमान अजान देने लगते हैं। हिंदू गंगा पर चढ़ावे चढ़ाने लगते हैं कि रूठी हुई गंगा मैया मान जाय। अपने प्यार की इस हतक पर गंगा झल्ला जाती है और किले की दीवार से अपना सिर टकराने लगती है और उसके उजले-सफेद बाल उलझकर दूर-दूर तक फैल जाते हैं। हम उन्हें झाग कहते हैं। गंगा जब यह देखती है कि उसके दुःख को कोई नहीं समझता, तो वह अपने आँसू पॉछ डालती है; तब हम यह कहते हैं कि पानी उतर गया। मुसलमान कहते हैं कि अजान का वार कभी खाली नहीं जाता, हिंदू कहते हैं कि गंगा ने उनकी भेंट स्वीकार कर ली। और कोई यह नहीं कहता कि माँ के आँखुओं ने जमीन को और भी

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