समीक्षा सिंह
मंजिल तक जो जाती ना हों
उन राहों पर जाना क्या।
अनजाने लोगों को जग में
अपना दर्द सुनाना क्या।
चाहे कुछ भी मिल न सके पर
कोई काश न बाकी हो।
दिल तो दिल है दिलवालों का
जीना क्या मर जाना क्या।
वो जायें तो जाने देना
जिनको अपनी चाह नहीं।
जिनके दिल में गैर बसे हों
उनको भी अपनाना क्या।
कोशिश पूरी कर न सके तो
दोष किसी को देना क्या।
मंजिल हो ना हो हाँसिल
पर रस्तों पर पछताना क्या।
गैरों की महफ़िल में अक्सर
अपने पाए जाते हैं।
लेकिन अपनी महफ़िल में
गैरों के गीत सुनाना क्या।
जो भी हो मंज़ूर हमें सब
आप सजा तो बतलायें।
जान तुम्हें ‘सिंह’ सौंप चुके
तो कोई और बहाना क्या।
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