निरजंन धुलेकर
रोज़ दोपहर के खाने में बाबू एक डिश तो मेरी पसंद की ज़रूर बनाती है। कभी पंच मिसली दाल, भरवां टिंडा आलू दम, मटर बड़ी, आलू काजू पुलाव, अदरक बूंदी रायता के साथ मस्त ख़री सिकीं चुपड़ी रोटियाँ खाने का मज़ा ही कुछ और होता है।
एक साथ कई चीजें बनाना खाना हम दोनों को ही पसन्द नहीं, एक डिश हो पर हो एकदम लल्लन टॉप।
खाने के बाद मुझे आती झपकी और बाबू ट्रांजिस्टर पर आकाशवाणी की खबरें सुनने बैठ जाती इस उम्मीद से कि सोनबरसा की कोई ख़बर पता चले।
उसकी इसी मासूमियत पर तो मेरा प्यार उमड़ता है और मेरे मुँह से निकलता 'आय लव यू बाबू' पर जब बाबू को भी यही बोलने को कहता तो भाग जाती है।
ये तीन शब्द बोलने में इसे भारी दिक्कत होती और मुझे उसके इस 'बाबू हठ' पर बहुत गुस्सा आता। शुरू में बाबू दाँत में पल्लू दबा के बोलती थी कि "आप हमें बोत्ति अच्छे लगत बस!" पर मेरा मन ही नहीं भरता था मैं उदास भी हो जाता।
दस-दस बार बैठा कर लिख कर बोल-बोल कर बाबू को 'आय लव यू 'बोलना सिखाता रहा और हर बार जवाब में गठरी लोटपोट हो जाती "क़ाय आप 'आय कुश यू' काहे नाहीं बोलत? लव-कुश दुई बेटा हथे सीता मैया के! हम समझ गए कि आय मतलब मैं यू मतलब आप! हम घर सम्भालत सेवा करत जे सब का बो नैया जो आप बोलने को बोलत?"
"तुम्हें आय लव यू बोले में सरम काहे आत?" मैं तंग आकर इससे पूछता तो जवाब में ये इतना ही बोलती कि हम दोनों के बीच कभी कोई नहीं आ सकता, कभी नहीं।
मुझे सपना आता कि बाबू चुपचाप पीछे से आयी और गलबहियाँ डाल बोली, 'हम का के रे आय लव यू!' पर यह सपना सच होता कैसे?
दादा दादी के ज़माने में किसी ने भी एक दूसरे को 'आय लव यू' नहीं बोला! शायद उन दिनों इस वाक्य को पति -पत्नी के बीच का अतिवादी अभद्र व्यवहार समझा जाता होगा और बोलने वाला पगलाया सठियाया अंग्रेज माना जाता होगा। ये सब नए जमाने के चोंचले कहलाते थे।
पति अपनी लुगाई को 'आय लव यू' कहता और कोई दूसरा यह बात सुन लेता तो पति खिसिया कर ऐसे झेंपता जैसे किसी पराई लड़की को आँख मारते पकड़ा गया हो।
मुँह से बोलना तो दूर की बात, लव प्यार इश्क़ के गाने घर में बजाना, गाना, गुनगुनाना भी वर्जित ही था। डिब्बा रेडियो पर अगर ऐसे वाहियात गाने बजते तो रेडियो और उसे सुनने वाले दोनों के कान उमेठ कर तुरंत सज़ा मिलती।
दादा-दादी को किसी ने कभी स्पर्श करते नहीं देखा था, यदि कोई चीज लेनी देनी होती तो भी वह दूरी बनाए रखते। एक दूसरे का हाल लेते रहना ही उनके प्यार के इज़हारों में से एक था। दादी के लिए पति के प्यार का मतलब उनके बच्चे और भरे-पूरे घर की सेवा करना ही था।
दादाजी का अपनी पत्नी के प्रति प्रेम प्रदर्शन का अर्थ इतना ही था कि घर मे दादी के पूजा पाठ, विधि विधान अच्छे से चलाते रहें। हाँ, दादाजी साल में एक बार यानी दिवाली पर उनके नए कपड़े बिला नागा ज़रूर खरीदते थे और उनका इतना ही प्यार दादी को साल भर के लिए काफ़ी होता।
दादाजी को पहली और आखिरी बार हम सभी ने दादी को छूते तब देखा जब दादी की अंतिम यात्रा शुरू होने के ठीक पहले उन्होंने उनके गालों पर हाथ फेर कर बोला था" चलो तुम, मैं भी आता हूँ। यहाँ अकेला क्या करूँगा अब।" दादी बेचारी क्या जवाब देतीं?
दादाजी ने जो कहा सो किया, महीने भर के अंदर उनका भी देहांत हो गया, इससे बड़ा भी 'आय लव यू' हो सकता है क्या?
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