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इज्जत

सुमन ग़म्भीर

मेरी आदत थी कि जब भी मैं किसी के घर काम करने जाती तो सबसे पहले अपना दुपट्टा उतारकर टाँग देती, फिर काम शुरू करती। पिछले एक हफ्ते से नया घर पकड़ा है। घर में कुल जमा चार सदस्य हैं। आँटी, अंकल और उनके दो बेटे। वह देर से बुलाती हैं और ज़्यादा काम भी नही होता इसीलिए सब जगह से काम निपटाकर आख़िरी में उनके यहाँ जाती और फुर्सत पाकर थोड़ी देर आँटी से बात भी कर लेती हूँ तो थकान दूर हो जाती है।
रोज की तरह आज मैं बड़ी तन्मयता से पोंछा लगा रही थी। पास ही कुर्सी पर बैठी आँटी से बतियाती भी जा रही थी अचानक उन्होंने पूछा "सुधा, तू हर जगह ऐसे ही काम करती है, बगैर दुपट्टे के?"
"हाँजी आँटी जी, मुझसे दुपट्टा लेकर काम बिल्कुल नही होता" हाथ चलाते हुए मैंने जवाब दिया।
"बुरा ना मानना! तू मेरी बेटी समान है इसीलिए कह रही हूँ।" पल भर के लिए आँटी चुप हो गईं फिर बोलीं "ज़रा अभी अपने कुर्ते के गले की ओर देखना"
मैंने अपने गले की तरफ देखा तो मैं खुद ही खिसिया गई। कुर्ते का गला बड़ा था इस वजह से मेरे शरीर का बहुत कुछ हिस्सा दिख रहा था। यहाँ तक कि थोड़ी सी शमीज़ भी।
"देखा? औरत होकर बार-बार मेरी निगाह पड़ जाती है; तो गलती से ही सही, अगर आते जाते मर्दों की नज़र पड़ जायें तो तुम लोग ही कहोगी कि फलाँ घर के आदमी बहुत ख़राब हैं, कामवालियों को देखते रहते हैं। लेकिन जब सामने कुछ दिख रहा हो, तो किसी की भी नज़र पड़ ही जाती है।
अब कोई आँख बंद करके तो नही चल सकता न? इसीलिये खुद ही कायदे से रहना चाहिए। चल मैं तुझे बताती हूँ कैसे करना है, देख ऐसे" आँटी ने बड़े प्रेम से अपनी साड़ी के पल्लू से ढककर बताया। वो मुझे समझा रही थीं और मैं उन्हें एकटक देखे जा रही थी। ऐसा लग रहा था कि जैसे मेरी माई बोल रही हैं। जो बहुत पहले इस दुनिया से चली गई थी, तब शायद मैं आठ-नौ वर्ष की थी।
"ऐसे क्या देख रही है तू?" आँटी ने कहा तो मेरा गला भर आया "सही कह रही हैं आप! लेकिन आज तक किसी ने मुझसे कुछ नही कहा, न ही कुछ बताया; शायद इसीलिये इस ओर कभी मेरा ध्यान ही नही गया।" कहते हुए मैंने दुपट्टा सामने से ढककर कमर में कसकर बाँध लिया।

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