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इम्तिहान

मनीष कुमार शुक्ल 'मन'


गिरा शजर तो उड़े परिन्दे
नये सफ़र की उड़ान ओढ़े
पड़ा रहा वो और उठ न पाया
बदन पे अपनी थकान ओढ़े
उसी की क़िस्मत सहर सजाये
उसी के हिस्से में आये मन्ज़िल
जो अपने रस्तों पे चल रहा है
क़दम-क़दम इम्तिहान ओढ़े
बुलन्दियों की अगर है चाहत
तो पहले ख़ुद पर यक़ीन रखना
मिटा रहे हो क्यूँ ज़िन्दगी को
हर एक लम्हा गुमान ओढ़े
मेरी इन आँखों में आ बसा है
वो हुस्न जिस का बदल नहीं है
मैं सो रहा हूँ मुझे न छेड़ो
उसी हसीना का ध्यान ओढ़े
मुझे ख़बर है तुम्हारी लेकिन
तुम्हें पता 'मन' न कुछ भी मेरा
ये रब्त है अपने दरमियां
जो है फ़ासले दरमियान ओढ़े

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