मुकेश ‘नादान’
नरेंद्र का चरित्र अपनी माँ से बहुत प्रभावित था। वे एक धर्मपरायण महिला थीं। मगर इस घोर विपत्ति में उनका विश्वास भी डोल गया। उन्होंने नरेंद्र को ईश्वर-उपासना करते देखकर डाँट दिया कि वह पूजा न करे।
माँ की बात सुनकर नरेंद्र सोच में पड़ गया, “क्या वास्तव में भगवान् हैं? यदि हैं, तो वह मेरी प्रार्थना क्यों नहीं सुनते?
उसके मन में ईश्वर के प्रति विद्रोह जाग उठा। नरेंद्र अपने मनोभाव दूसरों के सामने व्यक्त करने में तनिक भी नहीं हिचकिचाते थे। उन्होंने ईश्वर के प्रति अपने विद्रोहात्मक उदगार भी परिचितों के समक्ष प्रकट कर दिए, परिणाम स्वरूप नरेंद्र की चारों ओर निंदा होने लगी। लेकिन नरेंद्र को दूसरों द्वारा की गई निंदा-प्रशंसा से कोई सरोकार नहीं था। सर्दी, गरमी, बरसात मौसम-पर-मौसम बीत रहे थे, लेकिन नरेंद्र को कहीं काम नहीं मिला।
एक दिन रामकृष्ण कलकत्ता आए। नरेंद्र भी उनके दर्शन करने गया। रामकृष्ण से आग्रहपूर्वक दक्षिणेश्वर ले आए। वहाँ रामकृष्ण नरेंद्र व अपने अन्य भक्तों के साथ कमरे में बैठ गए। रामकृष्ण भावावेश में विलाप करने लगे।
उस समय की दशा का वर्णन नरेंद्र ने अपने शब्दों में इस प्रकार किया है, “मैं अन्य लोगों व ठाकुरजी (श्रीरामकृष्ण) के साथ एक कमरे में बैठा था। अचानक ठाकुर को भावावेश हुआ, देखते-ही-देखते वे मेरे निकट आ गए और मुझे प्रेम से पकड़कर आँसू बहाते हुए गीत गाने लगे। जिसका सार था, “बात कहने में डरता हूँ, न करने में भी डरता हूँ। मेरे मन में संदेह होता है कि शायद तुम्हें खो दूँ। अंतर की प्रबल भावराशि को मैंने अब तक रोक रखा था। अब उसका वेग मैं सँभाल नहीं पा रहा। ठाकुर की तरह मेरी आँखों से भी अश्रुधारा बह निकली। हमारे इस आचरण से वहाँ बैठे लोग अवाव्क्त रह गए।”
भावनाओं के वेग से बाहर निकलने पर ठाकुर ने हँसते हुए कहा, “हम दोनों में वैसा कुछ हो गया है।” जब सब लोग चले गए, तो उन्होंने मुझसे कहा, “मुझे पता है, तू माँ के काम से संसार में आया है। संसार में तू सदा नहीं रहेगा। इसलिए जब तक मैं हूँ, मेरे लिए तब तक तू रह।” इतना कहकर ठाकुर पुनः रोने लगे।
श्रीरामकृष्ण परमहंस की बात सुनकर नरेंद्र कलकत्ता लौट आए। यह तो नरेंद्र को भी अनुभव हेने लगा था कि उनका जन्म साधारण मनुष्यों की भाँति धनोपार्जन के लिए नहीं हुआ है।
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