मुकेश ‘नादान’
नरेंद्र प्रात: सायं भजन करने बैठ जाते, ईश्वर का नाम लेते, उन्हें स्मरण करते। एक दिन उनके पिता ने उनकी परीक्षा लेनी चाही तो वे बोले, “तुम क्यों अपना समय नष्ट करते रहते हो। संसार में कोई ईश्वर नहीं। जिसका तुम नाम लेते फिरते हो, उसका कोई अस्तित्व नहीं।"
नरेंद्र बोले, “यदि ईश्वर नहीं है तो फिर सृष्टि किसने रची हैं?"
पिता ने कहा, “यह सब कुछ गरमी और गति का परिणाम है। प्रत्येक वस्तु में उष्णता है, गति है। पता नहीं, कब यह उष्णता बहुत बढ़ी। इसके कारण कहीं कुछ बन गया, कहीं कुछ। स्वयं ही यह सबकुछ हो गया। इसे बनाने वाला कोई नहीं।"
नरेंद्र सोचने लगे, “अपने पिता को किस प्रकार समझाऊँ? कॉलेज में गए, तब भी यह विचार उनके मन में था। एक बड़ा सा कागज लेकर सुंदर रंगों के साथ वहाँ उन्होंने एक चित्र बनाया। चित्र बनाकर घर में आए, उसे कमरे में रख दिया, जिसमें उनके पिता सोया करते थे।'
पिता कार्यालय से लौटे तो चित्र को देखा। नरेंद्र से बोले, “यह चित्र किसने बनाया? यह तो बहुत सुंदर बना है।"
नरेंद्र ने कहा, “किसी ने भी तो नहीं बनाया, अपने आप ही बन गया है।"
पिता ने आश्चर्य से कहा, “अपने-आप?”
नरेंद्र ने कहा, “हाँ पिताजी, कॉलेज में कागज के रिम पड़े थे। उनमें उष्णता और गति आई तो एक रिम से यह कागज उड़कर मेज पर आ गया। एक अलमारी में रंग भी पड़े थे। उन्हें गरमी जो लगी तो उनके अंदर शक्ति आ गई। अलमारी से निकलकर वे कागज पर गिर पड़े, उसके ऊपर फैल गए और यह चित्र बन गया।"
पिता बोले, “मुझसे उपहास करता है, भला यह अपने आप कैसे बन सकता है?”
नरेंद्र ने कहा, “वैसे ही पिताजी, जैसे यह सृष्टि बन गई। यदि गरमी की शक्ति से स्वयमेव इतनी बड़ी सृष्टि बन सकती है तो क्या यह छोटा सा चित्र नहीं बन सकता?"
नरेंद्र के पिता उसके ज्ञान की गहराई को समझ गए थे।
इस शरीर में जिस प्रकार आत्मा प्रत्येक कार्य को चलाती हुई शरीर का स्वामी बन बैठी है, वैसे ही इस संसार को चलाता हुआ ईश्वर संसार का स्वामी बनके प्रत्येक वस्तु के अंदर विद्यमान है। इंद्रियों के परदे को हटाकर जिस प्रकार आत्मा के दर्शन होते हैं, इसी प्रकार प्रकृति के परदे को हटाकर ईश्वर का दर्शन होता है।
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