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उम्मीद की पलक

स्वाती छीपा

तुम्हारा खिड़की की मुंडेर को रोज उम्मीद से ताकते रहना व्यर्थ है सुमन। वह अब लौट कर नहीं आएगी। यही बात आपने तब भी कही थी विक्रम जी जब वह मुझे घायल अवस्था में लॉन में मिली थी। परंतु फिर, हां पता है। फिर तुमने उस नन्ही गौरैया की खूब साज संभाल की थी। थोड़े दिन में ही उसके चोट लगे पंख ठीक हो गए और वह अपनी उड़ान भर चली। यही ना सुमन .. ! !
जी विक्रम जी, उसने उस सामने खड़े पेड़ पर अपना आशियाना बनाया और मैं रोज उसे इस खिड़की की मुंडेर पर दाना पानी डालती रही। तुमने तो उसका पलक नाम रख नामकरण भी कर दिया था सुमन। वह चिड़िया भले ही हो विक्रम जी। पर मेरा उससे बहुत अधिक लगाव जुड़ गया था। उसका भी तुमसे सुमन .... तब ही तो वह तुम्हारे पास रहती थी। सात साल तक तुम दोनों का अटूट साथ रहा।
अब भी है विक्रम जी .. ! ! नहीं सुमन .... तुम कैसे भूल सकती हो उसने अपने जीवन की आखिरी सांस तुम्हारे इन महफूज हाथों में ही तो ली थी। फिर नम आंखों से श्रद्धांजलि दे तुमने उसे विदा भी किया था।
पर वह आज भी मेरे पास है, यकीन करें विक्रम जी। तुम्हें अब आराम करना चाहिए सुमन। डॉक्टर ने भी यही कह रखा है। जी जाती हूं, रात को जरूरत पड़ने पर विक्रम सुमन को अस्पताल लेकर जाता है। जहां नर्स विक्रम को एक बेटी का पिता बनने की बधाई देती है।
सात साल बाद पिता बनकर विक्रम खुशी से फुला नहीं समा रहा है। वह नन्हीं बच्ची को देखने सुमन के पास जाता है और बच्ची को गोद में लेकर कहता है। तुम ठीक कह रही थी सुमन। पलक अब भी तुम्हारे पास ही थी। यह नन्ही परी सी बच्ची ही तो तुम्हारी प्रतीक्षा, इंतजार और तन्मयता से राह तकती उम्मीद की पलक है। सुनकर सुमन मंद मंद मुस्कुराने लगती है।
पलक अब धीरे-धीरे बड़ी हो रही है। विक्रम और सुमन उसे खेलने के लिए बहुत सारे खिलौने लाकर देते हैं। पर उसे खिलौनों से ज्यादा अपनी मां सुमन के आसपास रहना और खिड़की के सामने स्थित पेड़ के नीचे खेलना कूदना अधिक पसंद है।
शायद मौजूदा पलक की स्मृतियों में बीती गौरैया पलक का अब भी कुछ शेष है।

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