बाहर की गर्मी और तपिस देखकर ही लोगों के पसीने छूट रहे थें। पारा पैंतालिस के पार चल रहा था। पशु-पक्षी, चिड़ियाँ-चुग्गे सब ईश्वर से प्रार्थना कर रहें थें, कि जल्दी से बारिश हो और पारा कुछ नीचे गिरे।
लेकिन जयवर्धन सुबह से ही काम में जुटा हुआ था। रेत को बोरियों में भरकर दो तल्ले पर धीरे-धीरे चढ़ा रहा था। जयवर्धन, साठ साल से कम का नहीं है। इतने उम्र तक तो लोग रिटायर होकर घरों में सुख-सुविधा के मजे उड़ाते हैं। जयवर्धन को उसके बच्चों ने घर से निकाल दिया है। जवानी में जयवर्धन हट्टा-कट्ठा था। पैसे कमाता था तो जमकर खाता भी था। अब हड्डियों का केवल ढाँचा ही बचा है। वैसी खाली इमारत जो कभी भी ढह सकती है।
जुगल ठेकेदार रेत की धीमी ढुलाई से खीज गया था। मजदूरों को उसने ठेके पर लगाया था। काम को तीन दिनों में खत्म होना था। लेकिन किसी तरह वो दो दिनों में ही काम को निपटाना चाह रहा था। ताकि कुछ ज्यादा पैसे वो बचा सके।
जुगल ने जयवर्धन को डपटा- "अबे, थोड़ा जल्दी-जल्दी पैर चला। इस तरह से सीढ़ियाँ चढेगा तो हफ्ते भर में भी काम खत्म नहीं होगा।"
जयवर्धन गमछे से पसीना पोंछते हुए बोला- "हाँ बाबू अभी जल्दी करता हूँ। बस तुरंत अभी खत्म करता हूँ।"
स्टेन साहब से रहा ना गया। वो, जुगल से बोले- "अरे भाई, सुबह से वो बेचारा इतनी गर्मी में काम कर रहा है। कम-से-कम उसे कुछ खाने के लिये तो पूछ लो। आखिर वो भी तो आदमी है। हमारी-तुम्हारी जब इतनी भीषण गर्मी से जान निकल रही है। तो क्या वो इंसान नहीं है? वो, बिना कुछ खाये-पिये खटे जा रहा है। जाओ उसे कुछ खाने को दो और कुछ देर आराम करने को कहो।"
जब जुगल ने कुछ नहीं कहा तो, स्टेन साहब ने अपनी तरफ से जयवर्धन को आवाज दी- "जयवर्धन .... अरे भाई जयवर्धन तुम कब तक काम करते रहोगे यार। उन्होंने जेब से एक सौ रूपये का नोट निकाला और सामने के होटल की तरफ इशारा करते हुए बोले। जाओ रे भले मानस उस होटल से कुछ खाकर आओ। काहे फोकट में जान देने पर तुले हो भाई जाओ।"
स्टेन साहब करोड़ों की कोठी और कई शापिंग कांपलेक्स के मालिक थें। लेकिन बेटा सात समंदर पार विदेश में अपने बच्चों के साथ रहता था। वो भी साठ के करीब ही थें। अचानक जयवर्धन का दु:ख उन्हें अपना ही दु:ख लगने लगा था। और वो भीतर-ही-भीतर कहीं रीतने लगे थें।
और, ठेकेदार सारा माजरा समझने के चक्कर में था। वो उजबकों की तरह अपने मालिक स्टेन साहब को घूरे जा रहा था।
************
Comments