दैत्यराज बलि के सौ पुत्र थे। जिनमें वाणासुर सबसे बड़ा था। वाणासुर न सिर्फ आयु में ही अपने अन्य भाइयों से बड़ा था, अपितु बल, गुण और ओजस्विता में भी उन सबसे बढ़-चढ़कर था। उसके एक हजार भुजाएं थीं। वह परम शिव भक्त था और प्रतिदिन कैलाश पर्वत पर जाकर शिव के सम्मुख नृत्य किया करता था। अपने हाथों से विभिन्न वाद्य यंत्र बजाता और भगवान शिव को प्रसन्न करने की चेष्टाएं किया करता था। शिव प्रसन्न हुए और उससे वर मांगने को कहा, “बोलो पुत्र, क्या वर मांगते हो?”
वाणासुर बोला, “भगवन, मेरे मन में किसी दुर्बल की उत्पीड़ित करने की अथवा देवताओं पर विजय प्राप्त करने की तनिक भी कामना नहीं है। यदि आप मुझसे प्रसन्न हैं तो मुझे यह वर दीजिए कि आप मेरे नगर के रक्षक बन जाएं। इससे मुझे आपका प्रतिदिन सान्निध्य प्राप्त होता रहेगा।”
“तथास्तु!” कहकर शिव अंतर्धान हो गए।
अपने दिए गए वरदान के फलस्वरूप शिव और पार्वती कैलाश छोड़कर दैत्यपुरी शोणितपुर में आकार बस गए। वाणासुर की एक पुत्री थी। जिसका नाम उषा था। वह मां पार्वती से संगीत की शिक्षा प्राप्त करने लगी। उषा यौवन काल की दहलीज पर पहुंच चुकी थी। एक दिन उसने शिव-पार्वती को एकांत में रमण करते देखा तो उसके मन में वासना पैदा होने लगी। वह पति प्राप्त करने की इच्छा करने लगी। पार्वती उसे संगीत की शिक्षा देतीं, तो उषा का शिक्षा में मन न लगता। उसे भांति-भांति के विचार सताते रहते। पार्वती उसके विचारों को समझकर बोलीं, “क्या बात है उषा, आजकल तुम्हारा ध्यान कहाँ कहीं ओर अटका रहता है। मैं समझ गई। तू पति प्राप्त करने की कामना करने लगी है। थोड़े दिन धैर्य रख बेटी। अपने में तुझे एक पुरुष दिखाई देगा। वही भविष्य में तेरा जीवन साथी बनेगा।”
इधर वाणासुर शिव से कह रहा था, “भगवन, आपने मुझे हजार भुजाएं तो दे दीं किंतु अब वह मुझे भार स्वरूप लगने लगी हैं। बेकार पड़े-पड़े मेरी बाहों में खुजली होने लगती है। मैं युद्ध करना चाहता हूं, जिससे मेरा आलस्य दूर हो सके। लेकिन कोई मेरी जोड़ का व्यक्ति धरा पर है ही नहीं।”
भगवान शिव समझ गए कि वाणासुर के मन में अभिमान पनप उठा। वे बोले, “अदिह्र मत होओ पुत्र, तुमसे युद्ध करने योग्य व्यक्ति भी धरा पर अवतरित हो गया है। शीघ्र ही तुम्हारी यह इच्छा भी पूर्ण होने वाली है।”
वाणासुर बोला, “लेकिन कब और मुझे मालूम कैसे होगा कि अमुक व्यक्ति ही मेरी बराबरी का है।”
शिव ने उसे एक ध्वजा देकर कहा, “यह ध्वजा ले जाकर अपने भवन के द्वार पर लगा दो। जिस दिन यह अपने आप नीचे गिर जाए, उस दिन समझ लेना कि तुम्हारा प्रतिद्वंद्वी आ पहुंचा।”
मनुष्य के जब बुरे दिन आते हैं तो उसकी बुद्धि स्वयं ही भ्रष्ट हो जाती है। भगवान शिव द्वारा क्रोध में कहे गए वह वचन सुनकर भी वाणासुर प्रसन्न हो गया और उसने खुशी-खुशी ध्वजा को ले जाकर अपने भवन पर गाड़ दिया। फिर वह प्रतीक्षा करने लगा कि देखें, ध्वजा कब गिरती है।
दूसरी ओर वाणासुर के महल में उषा अपनी सखी चित्रलेखा से बात कर रही थी। चित्रलेखा वाणासुर के मंत्री कुंभांड की पुत्री थी। उषा के मुंह पर व्याकुलता देखकर चित्रलेखा ने पूछा, “क्या बात है सखी, आज तुम बहुत उद्विग्न हो। शरीर तो स्वस्थ है न?”
उषा ने आह से भरते हुए कहा, “मेरे शरीर को कुछ नहीं हुआ है चित्रलेखा, मैं एक स्वप्न को लेकर व्याकुल हूं। रात स्वप्न में मैंने देखा कि एक परम तेजस्वी कामदेव के समान सुंदर युवक से मेरा विवाह हो गया है। फिर जब सपना टूटा तो सब कुछ गायब था। कुछ भी हो सखी, मैं तो तन मन से उस युवक को अपना पति मान चुकी हूं। मां भगवती ने भी मुझसे यही कहा था कि एक पुरुष तुझे स्वप्न में दिखाई देगा, वही तेरा पति बनेगा। तू मेरा एक काम कर दे।”
चित्रलेखा बोली, “कहो राजकुमारी, तुम्हारा हर काम करके मुझे अतीव प्रसन्नता होगी। तुम काम तो बताओ।”
उषा बोली, “तू तो चित्रकार है। अपनी कल्पना से कुछ ऐसे युवकों के चित्र बना, जैसे मैंने तुझसे उस स्वप्न पुरुष के बारे में बताया है। फिर मैं उसे पहचान लूंगी।”
चित्रलेखा ने अपनी कल्पना के आधार पर चित्र बनाने आरंभ कर दिए और उन्हें उषा को दिखाने लगी। अंत में एक चित्र को देखकर उषा खुशी से चिल्ला उठी, “यही है, बिल्कुल यही है सखी, यही युवक रात को मेरे सपने में आया था।”
चित्रलेखा चित्र को गौर से देखने लगी। मायावी दैत्य की पत्नी होने कारण चित्रलेखा स्वयं भी बहुत मायाविनी थी। उसने अनिरुद्ध को पहचान लिया, “अरे, यह तो अनिरुद्ध का रेखाचित्र है सखी, अनिरुद्ध प्रद्युम्न का पुत्र है और श्री कृष्ण का पौत्र है। वे लोग द्वारिका में रहते हैं।”
उषा बोली, “कुछ करो सखी, कैसे भी हो मुझे इस युवक से मिला दो। तुम तो स्वयं अच्छी मायाविनी हो। द्वारिका जाकर इस युवक को उठा लाओ।”
चित्रलेखा माया से द्वारिका पहुंची और सोते हुए अनिरुद्ध को बिस्तर समेत उठा लाई। सुबह जब अनिरुद्ध की आंख खुली और उसने अपने सामने उषा व चित्रलेखा को बैठे देखा तो आश्चर्य से बोला, “म…मैं कहां हूं और यह कौन-सी जगह है। तुम कौन हो?”
चित्रलेखा बोली, “तुम इस समय शोणितपुर में राजकुमारी उषा के अतिथि हो यादव कुलनंदन, इन्हें पहचानो। कल रात तुम इनसे सपने में मिले थे।”
कुछ क्षण बाद ही अनिरुद्ध को तुरंत याद आ गया कि राजकुमारी उषा को उसने भी सपने में देखा था और स्वप्न में ही उन्होंने परस्पर विवाह किया था। उसने अनुरागमयी दृष्टि से उषा की ओर देखा। फिर चित्रलेखा दोनों प्रेमियों को वहां छोड़कर चुपचाप बाहर निकल गई। काफी दिनों तक उन दोनों का गुपचुप प्रेम चलता रहा। चित्रलेखा के अलावा कोई तीसरा व्यक्ति नहीं जानता था कि राजकुमारी उषा ने अनिरुद्ध को अपने अंत:पुर में रखा हुआ है। लेकिन ऐसी बातें छुपती ही कहां है। अंत:पुर के रक्षकों द्वारा एक दिन वाणासुर तक यह समाचार पहुंची और क्रोध से भभकता हुआ वाणासुर अंत:पुर के में दाखिल हो गया। उसने राजकुमारी से कहा, “राजकुमारी, कौन है जिसे तूने अपने अंत:पुर में छिपा रखा है। शीघ्र बता अन्यथा…।”
अचानक अपने पिता को अंत:पुर में आया देख राजकुमारी उषा सहम गई। किंतु अनिरुद्ध निर्भीक भाव से वाणासुर के सामने आकर बोला, “मुझे अनिरुद्ध कहते हैं। कृष्ण मेरे दादा हैं और पिता प्रद्युम्र हैं। हम लोग द्वारिका में रहते हैं।”
अनिरुद्ध की बात सुनकर वाणासुर तलवार लिए अनिरुद्ध की ओर झपटकर बोला, “तेरी हिम्मत कैसे हुई कि तू वाणासुर की पुत्री के अंत:पुर में दाखिल हो गया। मैं अभी-तेरे टुकड़े-टुकड़े करता हूं।”
अनिरुद्ध बोला, “मैं स्वयं नहीं आया दैत्यराज, लाया गया हूं। यकीन नहीं हो तो अपनी पुत्री से पूछ लो।”
लेकिन वाणासुर ने उसकी बात का विश्वास नहीं किया। कुछ देर तक दोनों में युद्ध चलता रहा। फिर वाणासुर ने अनिरुद्ध को बंदी बना लिया। अनिरुद्ध के बंदी बनाने की खबर नारद द्वारा द्वारिका पहुंच गई। यह खबर सुनकर द्वारिका वासियों में क्रोध भर गया। कृष्ण अपनी सेना सहित शोणितपुर पर आक्रमण करने के लिए चल पड़े। कृष्ण सेना और दैत्य सेनाएं आपस में भिड़ गईं। कृष्ण और वाणासुर में भयंकर युद्ध छिड़ गया। दोनों ओर से अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग किया जाने लगा। वाणासुर के पुरपालक होने के कारण वाणासुर की ओर से भगवान शिव भी अपने गणों सहित मैदान में आ डटे। लेकिन कृष्ण के तीखे बाणों और सुदर्शन चक्र की मार से घबराकर दैत्य सेना भाग खड़ी हुई। शिवगण भी पीछे हट गए और स्वयं शिव भी कृष्ण के अमोघ अस्त्र से बेहोश हो गए। फिर श्री कृष्ण ने अपने चक्र से वाणासुर की भुजाएं काटनी शुरू कर दीं। उसकी भुजाएं कट-कटकर जमीन पर गिरने लगीं। पर तभी शिव की बेहोशी टूट गई। वे कृष्ण के पास पहुंचकर बोले, “आपका चक्र अमोघ है। किंतु मैंने इसे अभय-दान दिया है। मैं इसका रक्षक हूं। आप वाणासुर का हनन न करें।”
भगवान शिव की बात सुनकर कृष्ण ने अपना चक्र झुका लिया, फिर बोले, “आपका प्रिय मेरा भी प्रिय है, देवाधिदेव, मैंने नृसिंह अवतार लेते समय प्रहलाद को वचन दिया था कि उसके किसी भी वशंज का वध नहीं करूंगा लेकिन इसने आपका अपमान किया है देव, इसे दंड तो मिलना ही चाहिए। इसके अधिकांश भुजाएं तो मैंने चक्र से पहले ही काट दी हैं। किंतु जीवन दान तो तभी मिल सकता है जब यह चतुर्भुज रहकर आपकी सेवा करे।”
यह कहकर कृष्ण ने वाणासुर की शेष भुजाएं भी काट दीं और हजार भुजाओं में से उन्होंने सिर्फ चार भुजाएं शेष छोड़ दीं। फिर वाणासुर ने अनिरुद्ध और उषा का विवाह कर दिया। दोनों के विवाह बंधन में बंधने के बाद वाणासुर ने शोणितपुर छोड़ दिया और भगवान शिव के साथ ही उनके धाम कैलाश पर्वत पर चला गया। वह जब तक जिया, भगवान शिव की आराधना में लीन रहा और मरने के बाद उसे शिव लोक में स्थान मिला।
************
ความคิดเห็น