रजनी माथुर
एक लड़की होने के नाते मेरी भी एक इच्छा थी कि मुझे भी कोई छेड़े। मुझ पर नई-नई जवानी आई थी, नई इसलिए क्योंकि तब मैं स्कूल में थी और कॉलेज तक जाते-जाते जवानी बेचारी पुरानी हो जाती है। हाँ, तो मेरी सहेलियाँ जब छुट्टियों से वापस आती तो मुझे बताती कि बस में किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा अथवा देखकर किसी ने सीटी बजाया। मैं सोचती, इन्हें तो मात्र आठ घंटे की यात्रा करनी होती है पर मुझे तो वनस्थली से जयपुर, जयपुर से दिल्ली और फिर दो दिन ट्रेन में बैठकर बिहार पहुँचना पड़ता है, इतनी लंबी यात्रा में मुझे किसी ने क्यों नहीं छेड़ा?
खैर, फिर सोचा, शायद कॉलेज में। कॉलेज के पाँच साल भी व्यर्थ चले गये। सहेलियों के छेड़खानी के किस्से सुन-सुनकर मुझे उनसे कितनी जलन होती थी कि क्या बताऊँ। अपने मन में कहती, ले ले अभी मजे, मेरे भी दिन फिरेंगे। पर हाय री मेरी किस्मत! वो शुभ दिन आने से पहले ही मेरे गले में विवाह नाम की घंटी बँध गई। माँग का लाल सिंदूर दूर से ही इतना चमकता था कि। फिर साथ अंगरक्षक भी तो चलते थें। समय बीतता गया, मेरे दोनों बच्चे भी सयाने हो गये, बालों पर भी अच्छी-खासी सफ़ेदी आ गई पर 'मुझे कोई छेड़े' ये हसरत तो अभी भी जवान थी।
दो दिन पहले की ही बात है। मैं प्रातःकाल की सैर से घर वापस आ रही थी। कुहासा छँट रहा था और धूप निकलने को हो रही थी। मैं ओवरकोट पहनी थी और पूरे मुँह को टोपी-मफ़लर से ढ़क रखा था, हाथ में दस्ताने पहन रखे थें और अपनी मस्ती में चली जा रही थी। सर्दियों में सभी इतने कपड़ों से लदे रहते हैं कि बूढ़ा-जवान एक-सा ही दिखाई देता है। ईश्वर की कृपा से उम्र के छठे दशक में भी मोटापा नामक दानव मुझसे कोसों दूर था, शायद इसीलिए मेरे पीछे आ रहे एक महाशय ने सीटी बजाई। अब उस अकेली सड़क पर मेरे अलावा तो कोई और था नहीं। फिर भी मैंने गलतफ़हमी नहीं पाली और चलती रही। उन महाशय जी का सीटी बजाने का जब स्टाइल बदला तब मैं बड़ी खुश हुई। सोचा, भगवान के घर देर है, अंधेर नहीं। आखिर मेरा छेड़खानी वाला सपना पूरा हो ही गया। मैं आगे और वो महाशय जी पीछे चलते रहे तभी न जाने कैसे, मेरे बालों में खुजली हुई, कितना बर्दाश्त करती। हाथ से दास्ताने निकालकर मैंने अपनी टोपी निकाली और बेफ़िक्री से अपने चाँदी जैसे चमकते बालों को खुजलाने लगी। फिर कुछ याद आया और तुरन्त टोपी-मफ़लर लपेट लिया। बस तभी पीछे वाले महाशय जी मेरे साथ चलने लगे और मुझे 'सॉरी आंटी' कहकर निकल गये। पहले तो मैं समझ नहीं पाई क्योंकि ख़्यालों की दुनिया में खोई हुई थी। फिर याद आया तो कोसने लगी कि कम्बख्त खुजली को भी अभी ही आनी थी।
घर पहुँची तो मेरे बदले तेवर देखकर पतिदेव प्यार से पूछ बैठे। स्नेह पाकर मैंने सब उगल दिया और उन्होंने कैच कर लिया, व्यंग्य-भरी मुस्कान से मेरी तरफ़ देखते हुए बोले, "उसे अपनी गलती पता तो चल गई, एक हम हैं जो अभी तक गलती किये ही जा रहें हैं।" मैंने भी आँखें तरेरते हुए कहा, "अच्छा!" और इस कड़कती सर्दी में उन्हें गरमागरम चाय देने की जगह फ़्रीज़र से आइसक्रीम निकालकर उन्हें देते हुए बोली, "तो अब भुगतो।"
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