अनजान
सेठ जमनालाल बजाज ने संकल्प लिया था कि वे आजीवन स्वदेशी वस्तुओं का ही उपयोग करेंगे। उनकी प्रतिज्ञा यह भी थी कि वे प्रतिदिन किसी-न-किसी संत महात्मा या विद्वान् का सत्संग करेंगे।
एक दिन वे एक संत का सत्संग करने पहुँचे। बातचीत के दौरान उन्होंने कहा, ‘महाराज, आप जैसे संतों के आशीर्वाद से मैंने अपने जीवन में आय के इतने साधन अर्जित कर लिए हैं कि मेरी सात पीढ़ियों को कमाने की चिंता नहीं करनी पड़ेगी। आठवीं पीढ़ी की कभी-कभी मुझे चिंता होती है कि उसके भाग्य में पता नहीं क्या होगा?”
संतजी ने कहा, ‘सेठजी, आठवीं पीढ़ी की चिंता आप न करें। कल सवेरे आप यहाँ आ जाएँ। आपकी सभी चिंताओं का समाधान हो जाएगा।’
सेठ जमनालाल बजाज सुबह-सुबह उनकी कुटिया पर जा पहुँचे। संत ने कहा, ‘सेठजी, गाँव के मंदिर के पास झाडू बनाने वाला एक गरीब परिवार झोंपड़पट्टी में रहता है। पहले आप उसे एक दिन के भोजन के लिए दाल-आटा दे आओ। उसके बाद मैं आपको वह युक्ति बताऊँगा।’
सेठ जमनालाल आटा-दाल लेकर उस झोंपड़ी पर पहुँचे। दरवाजे पर आवाज देते ही एक वृद्धा निकलकर बाहर आई। सेठजी ने उसे लाया हुआ खाद्यान्न थमाया, तो वह बोली, ‘बेटा, इसे वापस ले जा। आज का दाना पानी तो आ गया है।‘
जमनालालजी ने कहा, ‘तो कल के लिए इसे रख लो।’ वृद्धा बोली, ‘जब ईश्वर ने आज का इंतजाम कर दिया है, तो कल का भी वह अवश्य करेगा। आप इसे किसी जरूरतमंद को दे देना।’
वृद्धा के शब्द सुनकर सेठ जमनालाल बजाज पानी-पानी हो गए। उन्होंने विरक्ति और त्याग की मूर्ति उस वृद्धा के चरण छूकर आशीर्वाद माँगा और वापस हो गए। इस घटना के बाद वे स्वयं कहा करते थे, ‘कर्म करते रहो, ईश्वर की कृपा से आवश्यकताओं की पूर्ति स्वतः होती रहेगी।’
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