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कलमुंही

मोनिका रघुवंशी

सुना आपने, आपकी बड़ी बहुरिया क्या गुल खिला रही है आजकल। इस कुलक्षिनी ने तो हमारा नाम डुबोने की कसम ले रखी है..... ललिता अपने पति सोमेश जी से बोल रही थी। क्यों अब क्या कर दिया उस बेचारी ने, तुम्हीं तो उसका जीना हराम किये रहती हो।
बड़ी दीदी ने आज छोटे तालाब के पास वाले पार्क में उसे और दीपक को साथ देखा है। पति को गुजरे अभी समय ही कितना हुआ है और ये कलमुंही नौकरी करने के बहाने पराए मर्दों के साथ गुलछर्रे भी उड़ाने लगी। और आप हैं कि मुझ ही को गलत ठहरा रहे हैं। आने दो आज उसे, ललिता पति की बात पर उत्तेजित होते हुए बोली।
चुप रहो ललिता, बहु घर की लक्ष्मी होती है और तुम्हें इस तरह अपनी बहू के बारे बोलना शोभा नही देता। तुम दीपक को जानती ही कितना हो।
क्या मतलब है आपका। लगता है आप भी अपने बेटे को भुला चुके हैं। तभी तो बहु का पराए मर्द के साथ जाना आपको बुरा नही लगता।
हां नही लगता मुझे बुरा, दीपक और बहू एक ही आफिस में काम करते हैं। काम काज के सिलसिले में अक्सर साथ उठना बैठना खाना पीना सामान्य बात है।
और रही बात बेटे के गुजरने की तो किसी के चले जाने से जिंदगी नही रुक जाती ललिता। अरे उस बेचारी ने तो हमारे बेटे के जाने के बाद अपने पिता के साथ जाने से भी मना कर दिया, ये कहकर कि हम दोनों फिर किसके सहारे रहेंगे।
क्या हो गया अगर उसने एक कप चाय कंही बाहर किसी के साथ बैठकर पी ली तो। कितने दिनों तक आंसू बहाकर पति के जाने का गम मनाएगी, और क्यों हम दोनों भी तो बेटे को खोने के बाद सामान्य तरीके से जीवन जी रहे हैं न, तो बहु क्यों नही।
मुझे तो खुशी है इस बात की कि अब वो सामान्य हो रही है जीवन के प्रति खुद के प्रति...
आप सही कहते है जी, बहु हमारे लिए अपना गम भुलाकर खुद को मजबूत बनाने में लगी है और मैं हूँ कि बाहर वालों की बात में आकर सोचने समझने का विवेक ही खो बैठी। अब से मैं इन बाहर वालों की बातों पर ध्यान ही नही दूंगी। मैं चाय बनाकर लाती हूं। बहु भी आफिस से आती ही होगी। हम तीनों मिलकर साथ मे चाय पियेंगे....कहती हुई ललिता रसोई की ओर चल पड़ी।

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