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कलयुग

विभा गुप्ता

स्नेहा के पति का नये शहर में तबादला हुआ था। अपने आस-पड़ोस से वह बिल्कुल अनजान थी। उसके पति के ऑफ़िस के ही एक सहकर्मी आनंद कुमार का परिवार उसके मुहल्ले में ही रहता था। उसी की पत्नी अनिता के साथ वह उठती-बैठती थी। उसका मन भी लग जाता और आस-पड़ोस की जानकारी भी उसे मिल जाती थी।
एक दिन अनिता ने आकर उसे बताया कि कुछ दिन पहले ही सी-301 वाली चौधरी आँटी की डेथ हो गई थी। कल रात ही इन्होंने मुझे बताया कि आज उनकी तेरहवीं है। मैं उनके यहाँ जा रही हूँ, तुम चलना चाहोगी? शिष्टाचार के नाते उसने जाना उचित समझा और 'हाँ' कहते हुए गरदन हिलाकर सहमति दे दी।
पड़ोसिन के यहाँ पहुँचकर उसने देखा कि घर के एक बड़े हॉल में मृतका की एक बड़ी तस्वीर रखी हुई थी जिसपर ताज़े फूलों का एक हार चढ़ाया हुआ था। सामने बिछे कालीन पर एक तरफ़ पुरुष और दूसरी तरफ़ महिलाएँ बैठी हुईं थीं। वह भी जाकर महिलाओं की पंक्ति में बैठ गई। महिलाएँ आपस में खुसर-पुसर कर रहीं थीं, तभी दो महिलायें अंदर वाले कमरे से निकली और मृतका की तस्वीर के पास बैठकर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगीं। पूछने पर पता चला कि वे मृतका की बहुएँ थीं। अपनी सास के प्रति बहुओं का स्नेह एवं आदर देखकर उसका दिल भर आया और मुँह से निकल पड़ा, "भगवान ऐसी बहुएँ सभी को दे, कितनी भाग्यशाली थीं वो जो ऐसी सुशील बहुएँ मिलीं थीं। उनके जाने के बाद तो बिचारियों का.....।" "अजी काहे की सुशील बहुएँ!" स्नेहा की बात पूरी होने से पहले ही पास बैठी एक महिला तपाक-से बोल पड़ीं। उनका इस तरह से कहना उसे अच्छा नहीं लगा। उसने कहा, "इतना दुखी तो कोई अपनों के लिये ही होता है ना....।"
"जी हाँ, बिल्कुल होता है लेकिन..."।
लेकिन क्या? "उसने आश्चर्य-से उन्हें देखा। महिला कहने लगी, "जब तक इनकी सास ज़िंदा थीं, इन्होंने उनकी कदर नहीं की। उनकी सेवा करने के बजाय उनसे सेवा करवाती रहीं। इनके बच्चों का जापा उन्होंने अकेले संभाला। जब तक उनके हाथ-पैर चलते रहे, सब अच्छा था लेकिन इंसान है, उम्र के साथ तो शरीर ढ़लेगा ही। बस तभी से....। इस घर की वो मालकिन थीं लेकिन उनकी बहुओं ने उन्हें एक कमरे तक सीमित कर दिया था। खाने के नाम पर तो बस उन्हें रोटी-सब्ज़ी ही मिलती थी। बाकी चीजों पर तो डॉक्टर की मोहर लगाकर उन्हें तरसा ही दिया था। आज देखो तो, उनके नाम पर कितने तरह-तरह के पकवान बनाये जा रहें हैं। जब तक रहीं..., अपनों के प्यार के लिये तरसतीं रहीं...।" इसके आगे उससे सुना नहीं गया, उसका मन खिन्न हो गया और वह वहाँ से उठकर चली आई। रास्ते भर वह यही सोचती रही, घर-मकान, कपड़े-जेवर इत्यादि के दिखावा करने वालों के बारे में तो बहुत सुना था पर रिश्तों का ऐसा झूठा दिखावा आज वह भी देख लिया। हे भगवान! कैसा कलयुग आ गया है।

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