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कागज की नाव

नीरजा कृष्णा

अमिता को मुंबई में नया ऑफिस ज्वाइन किए हुए साल भर होने जा रहा है पर वो नितांत अकेली है। चुपचाप  आना, अपना काम करना और फिर उसी तरह चुपचाप घर की बस पकड़ लेना... यही उसकी दिनचर्या है। असीम को उससे हमदर्दी तो है पर वो भी चुप्पा इंसान है।
आज कंपनी की तरफ़ से एक पिकनिक के आयोजन में सभी कर्मचारियों का जमावड़ा हैंगिंग गार्डन में है। मुंबई की बारिश तो मशहूर है ही...कब उमड़घुमड़ जाए...कोई नहीं जानता। उस दिन भी यही हुआ। एकाएक झमाझम शुरू हो गई। सब एक बड़े से शेड के नीचे दुबक गए थे। बगल के छोटे से गड्ढे में पानी बहने लगा था। अमिता का उदास मन खिल उठा... बैग में सुबह का पेपर पड़ा था। झट से उसने तीन चार नावें बना कर उसमें डाल दी और खुशी से ताली बजाने लगी। सभी का ध्यान उधर चला गया। असीम को ये सब देख कर अपना बचपन याद आने लगा...कैसे गाँव में सब बच्चे बारिश में कागज की नावें बना कर मस्ती करते थे। उसे छुटकी याद आ गई... कितनी फटाफट सुंदर सुंदर नाव बना डालती थी और उसकी नाव तेजी से आगे भी निकल जाती थी...तब वो असीम को बहुत चिढ़ाती थी।
सहसा असीम भी जोश से भर गया। अपने मित्र से पेपर लेकर उसने भी नाव बना कर उसी गड्ढे में तैरा दी। उसकी नाव को आगे बढ़ते देख अमिता के मुँह से निकला,"अरे तुम्हारी नाव तो आगे निकल गई।"
एकाएक उसके भी मुँह से निकल गया,"हाँ, आज तो मैं ही जीतूँगा।"
"अरे साहब, ये कागज की नाव है...कब डूब जाएगी... कौन जानता है?" ये अमिता चहक रही थी।
वो चौंक गया और पूछ बैठा,"तुम पालमपुर वाली छुटकी हो क्या?
"हाँ! और तुम सरपंच जी के बेटे मुन्ना हो?"
उसने हाथ बढ़ा दिया,"हाँ भाई हाँ।"
दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़ कर हँसने लगे। कागज की नावों ने बचपन के मित्रों को मिला दिया था।
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