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काजू का पेड़

धर्मेंद्र दयाल सिन्हा

तवियत कुछ खराब रहने के कारण मैं कार्यालय से अवकाश लिया था। अपनी दोनों बेटियों 15 वर्षीय दिशा एवं 8 वर्षीय आस्था को स्कूल छोड़ कर आया हूं। मंद-मंद हवा में अपने गार्डन में बैठ कर सुखद अनुभूति मिल रही है। तभी मेरा ध्यान गार्डन के उस पेड़ पर चला गया और मैं अतीत की दुनिया में खो गया।
करीब 5 साल पहले मैंने यह पेड़ सोनपुर मेले से खरीद कर लाया था, काजू का पेड़ जानकर। उसे बहुत ही प्यार और जिज्ञासा से प्रतिदिन पानी डालता और उसकी सेवा करता। पत्नी अंतरा और दोनों बेटियां भी जिज्ञासावश पेड़ की सेवा करते। समय बीतता गया। महीने-दर-महीने, साल-दर-साल वह तथाकथित काजू का पेड़ बढ़ता गया और साथ ही बढ़ती गई हम सभी की जिज्ञासा एवं उस पेड़ के प्रति प्यार और लगाव। हर साल यह सोचता कि इस बसंत में यह पेड़ अवश्य फलेगा, पर इंतजार बढ़ती गई। अंतरा तथा बच्चे आशान्वित नजरों से उस पेड़ की कोख पर गहरी नजर डालते रहे।
और उस दिन तो मैं अवाक रह गया जब छोटी बेटी ने कहा कि अगले साल यदि यह नहीं फला तो पापा इसे कटवा देना।
आखिरकार एक सुंदर सलोने समय के बीच पेड़ की शाखों पर नव अंकुर झूम आए। नन्हे फलियों में काजू जैसा सजा वह पेड़ कुछ कड़वे स्वाद वाले फल के साथ हम लोगों के सामने प्रस्तुत हुआ। वह फल तो थे लेकिन वह फल काजू न थे। अब घर के लोग उसे कटवाने के बारे में सोच रहे थे।
तभी मंद-मंद चलती हवा जोरों से तूफान जैसी चलने लगी और एक अंतर्द्वंद का तूफान मेरे मन के अंदर भी चल रहा था।
क्या सिर्फ इसलिए इसे काट देना उचित होगा कि यह वह फल नहीं जिसके लिए मैंने इसकी सेवा की थी?
क्या इतने दिनों तक उस पेड़ की सेवा करते हुए हमें उस से लगाव नहीं हो पाया?
बच्चे तो फिर भी बच्चे हैं पर अंतरा भी .....?
मुझे वह समय याद आ गया जब आस्था गर्भ में थी हम दोनों बल्कि तीनों (दिशा) ने लड़के की चाह की थी। अंतरा ने पूरी इच्छा और प्यार से 9 माह तक बेटे की चाह में अपने गर्भ को सींचा। 9 माह बाद जब आस्था आई तो क्या उसके प्यार में कोई कमी थी? कभी नहीं। हम सभी आस्था को उतना ही तो प्यार करते थे। फिर वर्षों इस पेड़ को सींचने के बाद भी इस से इतना लगाव क्यों नहीं?
अनगिनत सवाल मेरे मन के अंदर कौंध रहे थे। फिर मैंने एक निश्चय किया।
नहीं ऐसा नहीं होगा। हमें भी इतने सालों से इस पेड़ से उतना ही लगाव हो गया है। मैं सभी को समझाऊंगा। हम सब में अच्छे संस्कार हैं। सब जरूर समझ जाएंगे। ऐसा सोचकर मन शांति से भर गया।
"सुनो" तभी अंतरा की आवाज ने मेरी तंद्रा भंग की। मैं यादों के झरोखों से बाहर आया। बाहर तूफान थम चुका था और हल्की बारिश हो रही थी। मैं अंतरा को अपने सीने से लगा लिया और मेरी आंखों से दो बूंद आंसू उसके गालों पर गिर गए। अंतरा प्रश्न सूचक नेत्रों से हमारी ओर देखने लगी।
बाहर गार्डन में खड़े पेड़ के पत्तों से भी बारिश की बूंदे टपक रही थी। बिल्कुल मेरे आंखों की बारिश जैसी। तूफान के बाद की शांति जैसी शांत एवं शीतल। पेड़ से लगे अधखिले फूल मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। मानो मेरा शुक्रिया अदा कर रहे हो।

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