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कुदरत का चमत्कार

हरभजन सिंह

विभाजन के पहले भारत और आज के पाकिस्तान में नदी किनारे बसा एक गाँव था ‘बसाल’। मेरी दादी उसी गाँव की थीं। गाँव में रहता था एक पंजाबी दंपत्ति, कुंदन लाल और संतोष, जिसे सब तोशी के नाम से बुलाते थे। पति-पत्नी दोनों संतोषी जीव, निहायत ही भोले, सरल स्वभाव एवं शान्त और धार्मिक प्रवत्ति के थे। छल-कपट तो जैसे उनको छू भी नहीं गया था। कुंदन गाँव के किनारे एक छोटी सी पंसारी की दुकान चलाता था। उनका एक पांच साल का इकलौता पुत्र चंद्रभान जिसे प्यार से चंदर के नाम से बुलाते थे।
एक दिन की बात है, सारे गाँव में खबर फैल गई कि गाँव के बाहर विशाल वट वृक्ष के नीचे महंत बाबा ईश्वर दास और उनके साधुओं ने डेरा डाला है। उस शांत गाँव में उत्साह की लहर दौड़ गई। बच्चे डेरे की तरफ सरपट भागे। खेतों में काम कर रहे युवक और घरों से बुज़ुर्ग लाठी टेकते-टेकते उत्सुकता से साधुओं के डेरे की तरफ चल दिये। उस डेरे में नौजवान से लेकर सफेद दाढ़ी वाले करीब पंद्रह से बीस साधु थे, कुछ के तो अभी दाढ़ी मूछें भी नहीं फूटी थीं। डेरे के साथ ज़रूरी समान लादने के लिए तीन घोड़े और दो गाय और कुछ बकरियां भी शामिल थीं।
झक सफेद दाढ़ी और सर पर बिना पगड़ी के छोटा सा जूड़ा बांधे तेजस्वी मुख्य महंत ईशर दास डेरे के साधुओं को दिशा निर्देश देने में लगे थे। नौजवान साधु उत्सुक तमाशबीनों की भीड़ पर बिना ध्यान दिये घोड़ों पर लदे तंबू उतारकर ज़मीन में गाढ़ने में लगे थे। बाबा संतराम धूनी रमाने के लिए गीली मिट्टी का गारा तैयार करने में लगे थे। अगले दिन से धूनी रमा दी गई, आस पास के गांव से भी लोग आने लगे, गाँव की रौनक़ बढ़ गई।
गाँव के और लोगों की तरह कुंदन और तोशी भी अपने पुत्र चंदर को लेकर नियमित रूप से हर रोज़ सुबह डेरे पर जाने लगे। नन्हा चंदर हर रोज़ डेरे पर जाने के नाम से उत्साह से भर जाता, कुछ ही दिनों में चंदर डेरे के सभी साधुओं में प्रिय हो गया। उनके साथ खेलता कूदता, नवयुवक साधु उसे अक्सर घोड़े की सवारी भी करवाते। अक्सर उसकी माँ तोशी, चंदर को दिन भर के लिए डेरे पर छोड़ देती। शाम को कुंदन अपनी दुकान बंद करने के बाद डेरे पर जाता। मुख्य महंत ईश्वर दास के पास बैठ कर उनका प्रवचन सुनता और शाम ढलने पर चंदर को लेकर घर आता।
कुछ ही दिनों में कुंदन का छोटा सा परिवार बाबाजी का पक्का भक्त बन गया। बाबाजी की हर आज्ञा सर माथे पर चढ़ाई जाने लगी। कुंदन के होठों पर सिर्फ तीन अल्फ़ाज़ रहते थे “जो हुक्म बाबाजी”। दोनों पति-पत्नी तन मन से डेरे के साधुओं की सेवा करते। इसी तरह क़रीब एक महीना बीत गया। हर रोज़ की तरह कुंदन, अपनी दुकान जाते हुए बेटे चंदर को साथ लेकर बाबाजी के डेरे पर दर्शन के लिए पहुँचा…
लेकिन ये क्या??? बाबाजी अपना डेरा उखाड़ कर कहीं और जाने की तैयारी कर रहे थे। इस अचानक विदाई से कुंदन स्तब्ध रह गया।
क्या बात है बाबाजी? बिना कुछ बताए आपने जाने की तैयारी भी कर ली। कुंदन ने हैरानी से पूछा।
बस बेटा…इस गाँव में हमारा दाना पानी पूरा हुआ, अब चलते हैं। अब कौन से गाँव जाने की तैयारी है बाबाजी? कुछ पता नहीं बच्चा। हम तो घुमक्कड़ साधू हैं। जहाँ मन लगा वहीं तंबू गाढ़ कर धूनी रमा देंगे। इतने में कुंदन ने देखा कि नन्हा चंदर एक नौजवान साधू के साथ घोड़े पर बैठा है। लाख मनाने के बाद भी वह घोड़े से उतरने को तैयार नहीं हुआ। ज़िद पर अड़ गया कि मैं भी बाबाजी के साथ जाऊंगा। इतने में महंत ईश्वर दास कुंदन के पास आये और बोले।
कुंदन लाल, प्रभु का इशारा समझ रहे हो?
भोला भाला कुंदन कुछ समझा नहीं, सिर्फ हाथ जोड़ कर खड़ा रहा।
महंत ईश्वर दास आगे बोले चंदर परमात्मा की सेवा के लिए बना है, मेरी मान, उसे परमात्मा के चरणों में अर्पित कर दे।
तेरे तो सात जन्म सुधर जाएंगे, इतना कहते हुए बाबा ने कुंदन के जोड़े हुए हाथ अपने हाथों में ले लिए…
बोल क्या कहता है कुंदन लाल?
बाबा की बातों के सम्मोहन में बंधे कुंदन के मुँह से निकल गया “जो हुकुम बाबाजी” 
इतना सुन सारे साधुओं ने एक स्वर में कुंदन लाल, महंत ईशर दास और भोले नाथ की जयजयकार कर दी।
कुंदन इस अचानक हुए घटनाक्रम से हतप्रभ रह गया। थोड़े बहुत गाँव वाले जो वहाँ जमा थे, आश्चर्य से कुंदन लाल के चेहरे की तरफ देखने लगे। तुरंत ही साधुओं का काफिला अनजानी राह पर निकल पड़ा। नन्हें चंदर को अभी भी अहसास नहीं था कि उसके जीवन की धारा बदलने का निर्णय हो चुका है। वह तो घोड़े पर सवारी के आनंद से अभी उबर ही नहीं पाया था। काफिला आंखों से ओझल होते ही गाँव वालों ने कुंदन को घेर लिया।
अरे कुंदन, ये तूने क्या किया?
कुंदन तो जैसे पत्थर हो गया था, उसे समझ नहीं आया कि उसने ये क्या कर दिया। अचानक उसकी आँखों से आंसुओं की धार बह निकली। कुछ देर बाद गुमसुम बैठने के बाद उसी हालत में वह अपनी दुकान की तरफ चल दिया। दिन भर में कई ग्राहक आये पर उसके गुमसुम चेहरे से कोई जवाब न पाकर वापस लौट गए।
सूरज ढलने से पहले ही कुंदन ने दुकान बंद की और घर की तरफ चला। तोशी को क्या जवाब देगा? कि उसका चंदर कहाँ गया? अब जाकर भोले कुंदन को अपने निर्णय की गंभीरता का अहसास हुआ। गाँव के लोगों में से किसी ने तोशी को यह ख़बर बताने की हिम्मत नहीं की। कुंदन शाम को आया तो सब अपने घरों से झांक कर देखने लगे कि अब क्या होगा? कुंदन भारी क़दमों से घर मे दाख़िल हुआ।
तोशी ने तुरंत पूछा, चंदर को फिर डेरे पर ही छोड़ आये क्या?
कुंदन से कुछ जवाब देते न बना, पास ही पड़ी चारपाई पर कुंदन निढाल होकर गिर पड़ा। तोशी ने घबराई आवाज़ में पूछा, क्या हुआ जी सब खैरियत तो है ना?
चंदर कहाँ है?
चंदर को तो बाबाजी के चरणों में अर्पण कर आया। कुंदन ने बिना किसी लाग लपेट और बिना कोई भूमिका बाँधे सीधा जवाब दिया। खिडक़ी और आस पड़ोस से झाँकते चेहरों को देख तोशी को मामले की गंभीरता समझते देर न लगी। बिना एक पल गंवाए वो नंगे पैर डेरे की तरफ भागी, कुछ गाँव वाले पीछे दौड़े। दीवानों की तरह बदहवास दौड़ी चली जा रही तोशी की साँस फूल गई, होंठ सूख गए।
डेरे का दृश्य देख कर तोशी निराश और निढाल सी गिर पड़ी, डेरे की जगह अब सन्नाटा था। धूनी की राख से मामूली धुआँ अब भी उठ रहा था, यहाँ वहाँ खुदे गड्ढ़ों और और इक्का दुक्का गेरुआ कपड़े के टुकड़ों और घोड़ों की बिखरी लीद के सिवा कुछ भी न था।
उसने फिर भी हिम्मत नहीं हारी और गाँव के बाहर की तरफ भागी। इतने में उसके पड़ौसी किशन ने आवाज़ लगाई, ओ तोशी…। डेरा तो सुबह ही उठ गया, अब कहाँ जा रही है।
तोशी, एक लाश की तरह गिरी और बेहोश हो गई।
उधर चंदर दो तीन दिन बाद ही माँ बाप के लिए बेचैन हो गया।
डेरे के साधुओं ने उसे तरह तरह से खुश रखने की कोशिश की, लेकिन तितलियों जैसा चंचल चंदर ऐसा उदास हुआ कि दोबारा उसके चेहरे पर हंसी न आई।
उस नादान को अहसास न था कि उसके वापस जाने के सारे रास्ते बंद हो चुके थे। वक़्त के साथ साथ डेरा भी मीलों आगे निकल आया था।
इधर तोशी बेटे के वियोग में अर्ध पागल जैसी हो गई। घर के काम करती लेकिन सारा दिन अपने आप से बड़बड़ाती रहती। किसी से बात न करती थी, कुंदन भी तोशी को देख गहरे दुःख में डूबा रहता। सीधे सादे दंपत्ति का सादा और सुंदर जीवन एक दुःखद गाथा में बदल चुका था, और तोशी…?
धीरे-धीरे सारे गाँव में कमली तोशी (पगली तोशी) के नाम से जानी जाने लगी। कुंदन अक्सर रात के अंधेरे में चारपाई पर लेटे-लेटे अनजाने में हुई भूल को सोचकर आँसू बहाया करता था। तोशी की हालत उससे देखी न जाती थी। वक़्त गुज़रता गया, इसी तरह चौदह साल बीत गए।
चन्दर अब बाबा सुखदेव हो चुका था। लंबा और बलिष्ठ गबरू जवान मगर धीर गंभीर साधू बन चुका था। डेरे के बाकी साधुओं के साथ हँसी ठिठोली में शामिल नहीं होता था। भिक्षा पर निकलता तब भी किसी के द्वार पर पुकार नहीं लगाता था। कोई बाहर आकर कुछ दे जाए तो ठीक, वरना अगले द्वार पर चल पड़ता।
एक दिन काफिले के साथ चलते चलते चन्दर यानी बाबा सुखदेव के चेहरे पर एक अजीब सी चमक आ गई। ये जगह उसे जानी पहचानी लगी, डेरा अचानक उसी गाँव ‘बसाल’ में आकर रुका। वही छोटी सी नदी, वही वट का वृक्ष जो अब पहले से ज़्यादा फैल चुका था। उसी वट वृक्ष के नीचे डेरा डाल दिया गया।
मुख्य महंत बाबा ईश्वर दास का देहान्त हो चुका था। बाबा संतराम अब नए मुख्य महंत थे। चन्दर ने सारी रात जागते गुज़ारी और सुबह होते ही बाबा संतराम की आज्ञा लेकर भिक्षा को निकल पड़ा। तेज़ और व्याकुल कदमों से चलते हुए सीधे अपने घर के सामने पहुँच गया। आंगन के पार तोशी पुरानी पंजाबी सलवार क़मीज़ पर एक मटमैला दुपट्टा ओढ़े झाड़ू बुहारी कर रही थी। कुंदन किसी काम से साथ वाले गाँव गया हुआ था।
बाबा सुखदेव यानी चन्दर ने जीवन में पहली बार किसी द्वार पर भिक्षा के लिए लंबी पुकार लगाई…
माई ई ई ई ई……। भिक्षा दे…
बाबा की आवाज़ तोशी के कानों से टकराई।
तोशी की जिस्म में अचानक एक झुरझुरी सी होकर गुज़री और ज़हन में एक बिजली सी चमकी आंखों में एक रौशनी से उसकी आंखें फैल गईं।
इतने में बाबा ने फिर पुकारा।
माई ई ई ई ई…।। भिक्षा दे माई…
तोशी ने झाड़ू एक तरफ फेंका और पागलों की तरह चिल्लाती और दौड़ती बाहर की तरफ भागी…
चन्दर…। तू आ गया, कहकर छः फ़ीट लंबे बाबा सुखदेव से छोटे कद की तोशी दीवानों की तरह लिपट गई। मेरा चन्दर आ गया, मेरा चन्दर आ गया।
यह जानते हुए भी, कि तोशी उनकी जन्मदात्री माँ है, एक साधू की मर्यादा का मान रखते हुए उन्होंने उसे हाथ भी न लगाया। सिर्फ निःसहाय से अडिग खड़े कि कोई आये और इस स्त्री से उन्हें छुड़ाने में मदद करे।
बाबा ने ऐसी विचित्र स्थिति की कल्पना नहीं की थी, कमंडल हाथ से छूट गया लेकिन बाबा अडिग खड़े रहे। लोक लज्जा के भय से भी तोशी को न हाथ लगाया न उससे छूटने की कोई कोशिश की।
इधर तोशी थी जो बाबा से ऐसी लिपटी कि जैसे बरसाती बेल पेड़ से लिपटती है। छोड़ने को तैयार ही न थी। बाबा ने धीरे से कहा, माई तैनू भुल पई लगदी ए (माई तुझे शायद भूल हुई लगती है) मैं तेरा चन्दर नईं बाबा सुखदेव हाँ (मैं तेरा चन्दर नहीं, बाबा सुखदेव हूँ)।
इतने में आस पड़ोस के लोग इकट्ठे हो गए और कुछ स्त्रियाँ तोशी को बाबा से छुड़ाने की कोशिश करने लगीं। मगर तोशी थी कि बाबा से जोंक की तरह लिपटी थी और चिल्लाए जा रही थी। मेरा चन्दर आ गया… मेरा चन्दर आ गया।
एक स्त्री ने बाबा से याचना की मुद्रा में कहा- माफ करणा बाबा जी, जदों दा इसदा पुत्तर ग्या, ए कमली हो गई आ… (माफ करना बाबाजी जब से इसका बेटा गया तब से पागल हो गई है)
बाबा ने फिर कहा - बिब्बी मैं तेरा पुत्त नईं गा, मैं ते डेरे तो आया संत हैगा…
(मैं तेरा पुत्र नहीं, डेरे से आया संत हूँ)।
अचानक तोशी का स्वर बदल गया, अब वो अचानक तोशी से एक माँ हो गई। अच्छा,  तू बड़ा संत हो गया है? बड़ा ज्ञानी हो गया है ना? तू भी सारे पिंड (गाँव) की तरह मुझे कमली समझता है?
इसके बाद एक और विरल घटना घटी।
अचानक एक संत का कवच तोड़कर उसमें से एक आम इंसान निकल आया।
बाबा सुखदेव पिघल गए और उसमें से चन्दर प्रकट हो गया।
हाँ बेब्बे हाँ…।
मैं… तेरा चन्दर …
हाँ हाँ …चंदरभान
तेरा पुत्तर चंदरभान…
इतना कहकर चन्दर के आंसुओं का बाँध फूट पड़ा, और बुरी तरह फफक पड़ा।
उसने माँ को झुक कर गले से लगा लिया।
चन्दर बार बार एक ही बात दोहरा रहा था।
मिन्नू माफ कर दे बेब्बे, मैं तैन्नु बड़ा ई दुःख दित्ता…
(मुझे माफ़ कर दे माँ, मैंने तुझे बहुत दुःख दिए )
मैं तैन्नु बड़ा दुख दित्ता बेब्बे… मिन्नू माफ कर दे।
और तोशी बार बार उसके मुँह पर हाथ रख कर उसे ये कहने से रोक रही थी।
आंखों और आँचल से निकले द्रव्य एक हो गए ।
सारा गाँव कुदरत का ये विरल चमत्कार देखने को इकट्ठा हो गया था।
माँ-बेटे का ये अद्भुत मिलन देख कर वहाँ एक भी व्यक्ति ऐसा न था, जिसकी आँखों में आँसू न हों…
आगे की कहानी के मुताबिक, मुख्य महंत की सहमति से, पूरे विधि विधान के साथ साधु वस्त्र त्याग कर चंद्रभान को सांसारिक जीवन मे प्रवेश की अनुमति दी गई।

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