हरिशंकर परसाई
वो इतवार की छुट्टी के दिन मरे। वेतन लेकर क्रिया-कर्म का खर्च छोड़कर और वसीयत लिखकर।
वह जब जीवित थे, तब घर की सीढ़ी ऐसी चढ़ते थे, जैसे सीढ़ी से माफी-सी मांग रहे हों। माफ करना मुझे तुम्हारे ऊपर पांव रखना पड़ रहा है। मक्खियां नाक पर बैठतीं, तो आहिस्ता से मक्खियों को उड़ा देते जैसे क्षमा मांग रहे हों। माफ करना, मेरा इरादा तुम्हें कतई तकलीफ देने का नहीं है।
बरसात में घर के सामने कीचड़ होता, तो ईंट पत्थर डलवाने की बात को टालते हुए कहते-सभी को तकलीफ है, क्या करेंगे। उनसे जब कोई कहता- सुना है सरकार मंहगाई भत्ते की वह किश्त नहीं दे रही है। वे कहते क्या करें जी? देने वाली तो सरकार है, जब देगी तब ले लेंगे। कोई कहता- आपके यहां हड़ताल हो रही है, आप तो कल काम पर नहीं जायेंगे? वे कहते- मैं तो काम पर जाऊंगा। सभी तो हड़ताल कर रहे हैं। मेरे नहीं करने से क्या बिगड़ता है?
वे वोट देने नहीं जाते थे, कहते सब तो जाते हैं। मेरे वोट न देने से क्या हो जाएगा। उनसे कोई पूछता आपको कौन सी पार्टी पसंद है? वे कहते- अपने लिए तो दोनों ही अच्छी हैं। सभी सरकारें एक सी होती हैं।
सुबह मर गये वो।
प्रश्नकर्ता ने कहा- क्या वह संत था?
रचनाधर्मी ने उत्तर दिया- केंचुआ था।
लिजलिजे और रीढ़-विहीन व्यक्तित्व ऐसे ही होते हैं। आत्मकेन्द्रित, आत्मतुष्ट और निष्क्रिय। जिनके मन में न उत्साह होता है, न आग होती है और न सामाजिक चिन्तन।
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