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कोई है?

उषा

"क्या कह रही हैं आप? ऐसा भी कभी हो सकता है? आप नाम तो बताएं? मैं उड़वा दूंगी।" आवाज़ उत्तेजना से एकदम तेज हो गयी थी। भौंचक्की सी रचना के हाथ से रिसीवर छूटते-छूटते बचा।
"आप यह कौन सी फिल्म के डायलॉग बोलने लगीं?"
"आप मज़ाक समझ रही हैं क्या? ऐसों को ख़ूब पहचानती हूं और उनसे डील करना भी मुझे आता है। मेरे पास तगड़े सोसर्से हैं। ऐसी हरकत कर उसे जीने का कोई अधिकार नहीं है।"
"बस उसे यह समझ में आना चाहिए कि एक जान चली गई। एक हंसता-खेलता परिवार बिखर गया। आगे से वह चेत जाए, बस केवल इतना ही करना है। इससे ज़्यादा हमें कुछ नहीं चाहिए।"
"फिर भी आप नाम तो बताएं। आप जैसे छोड़ देनेवाले लोगों के कारण ही तो ये लोग इतने लापरवाह होते जा रहे हैं। जब तक सज़ा नहीं दी जाएगी, ये लोग नहीं समझेंगे। आख़िर आपको नाम बताने में क्या परेशानी है।"
"ना.., मुझे नाम मालूम नहीं है, तो बताऊं क्या?"
किसी तरह उस उद्वेलित होती महिला को समझा के शांत करने की चेष्टा की।
"मत बताइए। मैं ख़ुद मालूम कर लूंगी। अस्पताल में मेरी जान-पहचान ख़ूब है।" और खटाक से फोन रखने की आवाज़ आई।
रचना चुप सी बैठी रह गयी।
उस हादसे को हुए अभी चार दिन हुए।
नन्दन मामा का घर रचना के घर से बहुत दूर था, पर स्नेह की डोर में हर वक़्त फोन पर हंसते-बतियाते रहते। लगता था, दूसरे ही कमरे में बैठे हों।
उसी बीच मामा को एस्केमिया हो गया, हाई ब्लड प्रेशर पहले से ही था। ऑफिस में तनाव ज़्यादा बढ़ता जा रहा था और लम्बे-लम्बे रास्ते तय करके ऑफिस आते-जाते थकान भी ज़्यादा रहने लगी थी। रह-रहकर दर्द उठता, छाती दबाते और चुप पड़ जाते। ऐसे में एक दिन ट्रेन से घर आते-आते पसीने में हांफते-कराहते नन्दन मामा को उनके ट्रेन के साथी ही सहारा देकर घर लाए। बदहवास सी मीता उन्हें संभालने में जुट गई और तभी घर लौटी बेटी श्रेया सामने के डॉक्टर के पास दौड़ गई।
उस दिन का दिन था और परसों का दिन, जो ईसीजी निकलने शुरू हुए तब से तो जाने कितने निकलते चले गए, हिसाब ही नहीं रहा। पास ही में अच्छे कार्डियोलोजिस्ट को ढूंढ़ना, जहां आपातकालीन चिकित्सा सुविधा हो (इमरजेन्सी अटेन्ड कर सके) ऐसे अच्छे अस्पताल की खोज में दोनों बहनें श्रुति और श्रेया जुट गईं।
ऐसे में श्रुति की डॉक्टर जेठानी दीदी ने बहुत साथ दिया। उनका ख़ुद का क्लीनिक दूर उपनगर में था, पर डॉक्टर की अपनी पहुंच बहुत होती है। नहीं तो अस्पताल का हाल तो यह है कि मरीज़ मरता हो, पर बेड दस दिन बाद मिलेगा। डॉक्टर महीने भर बाद मिलने का अप्वाइंटमेंट देंगे। ऐसे में डॉक्टर घर का हो, तो बड़ा सहारा हो जाता है, दूसरे डॉक्टर भी ख़्याल रखते हैं।
डॉक्टर और अस्पताल ढूंढ़ते-समझते मीता, श्रुति और श्रेया ने पहला काम किया नन्दन मामा के सेल्फ रिटायरमेन्ट लेने के पीछे पड़ गईं। पहले मनुहार करके फिर झगड़ा करके कि बस बहुत हो लिया, यह दिलवा ही दिया। यह कह कर कि दिल के मरीज़ के लिए इतनी दूर ऑफिस आना-जाना, ठीक नहीं।
छोटा-सा परिवार। नाज उठानेवाली पत्नी और लाड़ लड़ाने वाले बेटियां। कहीं बाप बच्चों को हथेली पर रख कर संवारता होगा, पर यहां बेटियां पिता को हथेली पर लिए हर धूप-छांव, अन्धड़ से बचाने में एक लग गयी थीं। ब्लड प्रेशर नापने की मशीन आ गयी। बेटियां नब्ज़ देखना पलक झपकने में सीख गयीं। ईसीजी पढ़ने में छोटे-मोटे डॉक्टरों को पछाड़ने लगीं। ज़रा-सी लीक से हटकर थोड़ा-सा भी ऊपर-नीचे जी होता कि घर में भगदड़ मच जाती। डॉक्टर मशीन लिए हाज़िर हो जाते। घर अस्पताल बन जाता। कुछ दिन के लिए चुपचाप सन्नाटा सा खिंचा रहता। आगे-पीछे बीवी-बच्चे पलकों का उठना-गिरना देखते रहते।
तबियत सुधरते ही नन्दन मामा उस सारे दुलार को चौगुना करके फेरने लगते। श्रेया के पांव में मोच क्या आ गयी, घर सिर पर उठा लिया। दुनियाभर के तेल और ट्यूब की लाइन लग गयी। आते-जाते दोस्तों से मालिश करनेवाले का पता लगाने को कहते-कहते ख़ुद रोज़ तेल मालिश और सेंक करने लगे और ठीक करके ही चैन पाया। वे मेरे लिए हैं, मैं उनके लिए हूं।
पर ऐसे संभालते-संभालते भी दो बार अस्पताल के आई.सी.यू. में जाकर लेटना पड़ा, नलियों और मशीनों से घिर कर। पर वहां भी हज़ार बार नर्सों के समझाने पर भी उनके पास तीनों में से एक बना ही रहा। बाक़ी दो दरवाज़े के बाहर पहरेदारी करती रहीं।
भला जिसके घन्टे-घन्टे के बीतने का क्रम तय हो गया हो, वह लीक से हटकर चलने की हिम्मत कर कैसे सकता है? और वह भी ऐसा आदमी, जो घर की इतनी स्नेह डूबी चिन्तातुर आंखों को देखकर ख़ुद भी जी जान से लड़ने को तैयार हो गया हो। बिना नमक का उबला सा खाना, चिकनी-चुपड़ी रोटी का छूना भी दूर। सब तीज-त्योहार पर पकवानों को दूसरे के मुंह में देकर, अपना मुंह फेर लेना, वही एक मात्र जाप सा करते हुए, "वे मेरे लिए हैं मैं उनके लिए हूं।"
सेल्फ रिटायरमेन्ट के लिए भी कितनी मुश्किलों से तैयार हुए थे कि श्रेया की ज़िम्मेदारी से अभी मुक्त नहीं हुआ हूं। कैसे घर बैठ जाऊं। तब श्रुति-श्रेया दोनों अड़ गयी थीं कि बेटा नहीं है, तो क्या कमानेवाली बेटियां तो हैं। सदी इक्कीसवीं में पांव रख रही है और आप अठारहवीं सदी का पांव पकड़े बैठे हैं।
श्रुति घरवाली हो गयी है। अपने ही घर के ख़र्चे पूरे नहीं पड़ते, पर ब्याहा बेटा ही कौन सा साथ दे पाता है? श्रेया की नौकरी अच्छी है। पहले उसकी नौकरी देखकर लड़केवाले मुड़-मुड़कर आते थे, पर पापा की बीमारी और मां की असहायता देखकर वह टालती रही। अब कोई मुंह नहीं मोड़ता, तो वह भी नहीं देखती। महानगर में उस जैसी हज़ारों हैं अपनी नौकरी पर आती-जाती। दूसरे की ग़ुलाम तो नहीं है, कमाती है, तो अपने सबसे निकटवालों के ही हाथ में रखना होता है।
कितने क़िस्से देखकर और सुन चुकी थी कि ब्याह के पीछे तो डबल नौकरी करनी पड़ती है। ऑफिस जाओ ऊपर से सास-ससुर, पति की नौकरी अलग, और फेरे लेते ही अपनी मेहनत से कमाकर लाए पैसों पर से भी ख़ुद अपना भी अधिकार पराया हो जाता है। जिन्होंने पढ़ाया, कुछ कमा सकने के लायक़ बनाया, साथ में भरपूर दहेज भी पकड़ाया, वे बेगाने हो जाते हैं। वक़्त पड़ने पर आवाज़ देने से भी मजबूर। श्रुति दीदी के सास-ससुर नहीं, पर अपनी गृहस्थी, पति और काम तो हैं। उनका ढेर सारा काम, फिर भी करती हैं।
ऐसी बेड़ियां उसे नहीं डालनी, वह ज़्यादा मौज में है। कम से कम थके-हारे घर आती है, तो बेटे जैसा आराम करने को तो मिल जाता है। सुकून से लेटकर बतियाओ या टी.वी. देख लो। कभी छुट्टी में मन हुआ तो रसोई में झांक लिया। दोनों बहनों और पेन्शन के बूते पर ही नन्दन मामा मुश्किल से राजी हुए थे रिटायरमेन्ट लेने के लिए।
दिवाली आ रही थी। उस रोज़ बड़े शौक़ से विभिन्न आकार के दीये ख़रीदे। श्रुति के बच्चों के लिए पटाखे, फुलझड़ी, श्रेया के लिए छोटा-सा टिफिन बॉक्स नए डिज़ाइन का, जो उसके चौड़े पर्स में आराम से बैठ सके, तब मीता के लिए भी एक साड़ी उठा ली।
मीता की साड़ी शौक से गिफ्ट पैक कराई, पर घर आते-आते जीना चढ़ते ही उन्हें हल्का-सा दर्द महसूस हुआ। पहली ही मंज़िल है, इतना तो डॉक्टर ने भी ना नहीं कहा है, पर दिल है कि गाहे-बगाहे अपनी स्पीड बढ़ा देता है, सो आते ही लेट गए। घर में मीता अकेली थी। तुरंत ही उसके हाथ-पांव फूल जाते हैं, इसलिए उससे ज़्यादातर बात छिपा ली जाती है। दो मिनट पानी ग्लास लिए वह पास खड़ी रही पहले, पर दर्द की रेखा बढ़ती देख उसका अपना जी घबराने लगा।
श्रेया पास ही में सर्विस करती है। डॉक्टर के साथ-साथ उसने घर में पांव रखा। डॉक्टर का मुंह और ईसीजी पर खिंचते नक्शे देखकर उसका मुंह भी सुन्न होता गया। एम्बुलेंस बुलाने के साथ ही श्रुति को फोन लगा दिया। फिर वही 'देवाजू' शुरू हुआ। लगता था ऐसा तो पहले भी हो चुका है। वैसे ही आई.सी.यू. में मशीनों के बीच नन्दन मामा का लेटना। पास में स्टूल पर एक का बैठ कर चौकीदारी करना। आई.सी.यू. में बैठने की सुविधा श्रुति की जेठानी डॉक्टर दीदी के कारण मयस्सर है।
तरह-तरह के टेस्ट होते चले गए। कार्डियोग्राम भी हो गया। "स्थिति सामान्य है, परेशान होने की ज़रूरत नहीं…" सुन कर तीनों जनी उन्हें घेरे रहीं।
"अरे भई, कल कमरे में शिफ्ट हो जाएंगे और दीवाली तक घर में।" डॉक्टर दीदी के आश्वासन देने पर ही तीनों के चेहरों पर खिंची तनाव की रेखा ढीली हो गई।
दिवाली घर कर सकेंगे जान कर एक मीठा सा सुकून मीता के अन्दर उतर आया।
तय हुआ दो दिन कमरे में रह कर फिर घर का रुख दीवाली की सुबह कर लेंगे।
पर ऊपर, उस रात क्या भगवान नहीं बैठा था?
अपनी जगह वह किस नौसिखिये को बैठा गया था आसन पर? नंदन मामा को बेचनी सी हो रही थी।
बैठी मीता घबराकर अधसोये डॉक्टर को बुला लाई।
"कोई बात नहीं है।" मरीज़ को नींद नहीं आ रही। ख़ुद को कितना तेज बुखार चढ़ा है। सो जाएंगे तो अपने को भी कुछ तो सोने को मिलेगा। सोच कर वह इंजेक्शन तैयार करने लगा। तब तक मीता घबरा कर बाहर भागी। श्रुति बाहर बेंच पर बैठी ऊंघ रही थी। मां की बदहवासी देखकर वह अन्दर लपकी।
"आप कौन-सा इंजेक्शन दे रहे हैं।" पापा की ओर आते डॉक्टर को रोक कर उसने पूछा।
"डॉक्टर मैं हूं कि आप?"
"फिर भी!"
"फिर भी क्या? कम्पोज है। हटिए काम करने दीजिए।"
"पर रात में तो यह दिया था न एक।" श्रुति फिर भी जोर दे रही थी।
"ओ श्रुति बेटा, मेरा पेट फूल रहा है, मुझे बड़ी बेचैनी हो रही है।" छटपटाते हुए नन्दन मामा ने श्रुति का हाथ कस कर पकड़ लिया।
उसे एक ओर धक्का देकर हटाते हुए डॉक्टर ने नन्दन मामा को इन्ट्राविनस इंजेक्शन दे दिया।
नन्दन मामा को मांसपेशियों को आराम देने के लिए इंजेक्शन पहले लगा था। उससे मांसपेशियां ढीली हो गयी थीं। देर रात वे उठे, बाथरूम जाना चाहा पर जा न सकें। पेट फूलने लगा तनाव से बेचैनी बढ़ने लगी। पहले भी उन्हें एक बार यह परेशानी हुई थी, तब केथेटर लगा कर सुकून पाया था। उधर रात की शिफ्ट में नये डॉक्टर ख़ुद ट्रेनिंग पर थे। कोर्स पूरा कर हाउस जॉब में थे। ना तो तजुर्बा, न देर रात तक जागने की आदत। नोंक-झोंक कर सिर को झटका देकर जगे रहने की कोशिश में नाकाम होते हुए।
उधर नन्दन मामा एक बेचैनी से घिरे और उसके बाद सब फेल होता चला गया। नन्दन मामा की छटपटाहट और बढ़ी। गो-गो करते वे हलाल होते बकरे की तरह रंभा रहे थे।
घबरा कर मीता उनके एक ओर हाथ कस कर पकड़े खड़ी थी कि उसके हाथ के ढीले होते ही वे कहीं खिसक न जाएं और दूसरी ओर श्रेया व श्रुति डॉक्टर को आवाज़ें दे रही थीं।
डॉक्टर घबरा कर उनके केस की रिपोर्ट ढूंढ़ रहा था। उसे क्या देना, क्या नहीं देना चाहिए था, अब जानने के लिए।
बता गयीं वे रोते-रोते इंजेक्शन की कहानी। किस तरह पहले एक इंजेक्शन लगा था नींद का, फिर इन्ट्राविनस का लगा दिया, जो सारे नसों को सुलाता हुआ, दौड़ता हुआ हार्ट तक पहुंचा, और गो-गो करते छटपटाते मामा को सदा के लिए सुला गया।
छटपटाहट शान्त हो गई। धनतेरस थी। घर में धन, नया सामान लाते-नन्दन मामा आए घर वापस… औरों के कंधों पर आंख भींचे धरती पर लिटा दिए गए। डॉक्टर दीदी आई थीं। पैरों के पास चुपचाप रोती रहीं। श्रेया व श्रुति पर हाथ फेरती। क्या जवाब दे मीता को, वो तो रूम में शिफ्ट होने की कह गयी थीं, पर कौन से रूम में गए वे। आंख चुराती-सी बैठी थीं।
आंसुओं के तूफ़ान में जैसे ज्वालामुखी का मुंह खुल गया हो। जिनकी हर नब्ज़ को उंगली से थाम ब्लड प्रेशर को जांचते-संभालते रहे थे, वे नौसिखिए के हाथ यूं ही चले गए। चले गए या मारे गए। इसे तो मारना ही कहते हैं।
ऐसे कोई मार देता, तो पुलिस केस होगा, सत्ता मिलेगी, पर यहां अस्पताल में ऐसे हुआ तो?
बस, एक डॉक्टर के हाथ से हुआ। सज़ा का हक़दार नहीं है क्या वह? विलाप का वेग चौगुना हो गया।
हर आए-गए मुंह पर एक ही बात… चले जाते घर पर होते, बिना इलाज यहां सब कराके अफ़सोस रहता कि हाय करा नहीं अस्पताल में ले गए।
यमदूत क्या ऐसे को ही कहते हैं!
रचना मामाजी की प्यारी भांजी थी। हर तीज-त्योहार, सुख-दुख में हाज़िरी देने चली आती। मामी का मूक रूदन श्रुति-श्रेया का छटपटाना उसकी आंखों के आगे गुज़र रहा था। अपनी हर सांस में वह उनके दुख को जी रही थी।
उसी तिलमिलाहट में वह सहेली को बता बैठी मामा का जाना और ऐसे जाना।
उसका रिएक्शन देख कर लगा हां, दुनिया है अभी। दूसरे के दुख-दर्द में लोग अपना समझते हैं, और अभी भी लोगों में अन्याय के ख़िलाफ़ उठ खड़े होने का ताव है। भूचाल खड़ा करने की हिम्मत बची है।
पर हे भगवान! क्या ग़ज़ब की औरत है।
ऐसा रिएक्शन, "उड़ा दूंगी।"
वह भी औरत के मुंह से, लगता था जैसे फूलन देवी बोल रही हो।
अपनी उपमा पर झल्लाहट हो आई उसे।
होता है कुछ लोग रिएक्ट अलग तरह से करते हैं, पर चलो, हमारे दुख में कोई तो शरीक है। साथ दे रहा है।
अभी भी सब मरा नहीं है।
एक शांति की सांस अंदर आई।
चौथे पर पंडित आए, हवन हुआ। सब घर के जुड़े, शहर और बाहर से आए भी और सब चले गए। उनकी आत्मा को शांति और रह गए लोगों को धैर्य मिले की प्रार्थना करते हुए। पर धैर्य कैसे मिले। कलेजे में तो जब से कारण पता लगा, हुक सी उठ रही है और सब आए हुए लोग भी उसे हवा देते जा रहे हैं। श्रुति ने हवन से निबटते अगले दिन ही बाहर से आए जीतू भाई को ऐथॉरिटी लेटर देकर भेज दिया, अस्पताल से सारी रिपोर्ट लाने। उसकी तो सभी रिपोर्ट देखी, क्या रटी पड़ी थी।
एक बार हाथ में यह सब रिपोर्ट आ जाए और डॉक्टर दीदी तो साथ में हैं ही फिर कन्ज्यूमर कोर्ट खटखटाना तो है। अपने तो चले गए, पर औरों के तो ना जाएं ऐसी लापरवाही से। आवाज़ उठाने पर ही डॉक्टर व अस्पताल चेतेंगे, नहीं तो यह हादसे तो बढ़ते ही जाएंगे।
इन्हें रोक सकें यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी पापा के प्रति।
जीतू भाई ने रिपोर्ट लाकर हाथ में दे दी। सब पढ़ी-पढ़ाई है क्या देखनी। मन में आया, फिर भी फ़ालतू बैठी यूं ही लिफ़ाफ़े का मुंह खोल डाला।
ब्लड टेस्ट वही है।
शुगर ठीक है।
पर यह… यह क्या… यह ईसीजी।
यह तो पापा का नहीं है। इतनी ऊपर-नीची कूदती-फूदती लाइनें उसमें नहीं थी। पापा के इतने ईसीजी उसने पढ़े हैं कि उससे रचे-बसे, छिपते-दिखते सभी वॉल्व वह पहचान जाती है झट से।
चौंक कर उसने इको कार्डियोग्राम देखा।
"अरे, यह… यह सब क्या लिखा है।" घबरा कर श्रुति ने रिपोर्ट्स श्रेया की ओर बढ़ाई और दूसरी रिपोर्ट उठाई।
'डेथ बाई हार्ट अटैक।'
श्रेया का सिर घूमने लगा। लगा चक्कर आकर वह गिर जाएगी। सहारे के लिए उसने सिर कुर्सी की पीठ पर टिका दिया। तेज़ तीखी पर परिचित आवाज़ सुनकर चौंक कर उसने पीछे मुड़ कर देखा।
कमरे में घुसती डॉक्टर दीदी मम्मी पर बरस रही थीं, "आपसे किसने कहा इंजेक्शन ग़लत लगा? आपको है समझ इतनी? सब इलाज ठीक हुआ। वे तो हार्ट पेशेन्ट थे। हार्ट अटैक तेज़ पड़ा उसी में चले गए। मैं कहती हूं ना?"
पास खड़ी रचना व श्रुति हैरान सी उनका मुख देखती रह गईं। जब डॉक्टर दीदी ने नन्दन मामा के घर से उठने पर बात बताई थी, तब वह क्या, उसके पास बैठी कितने नाते-रिश्तेदारों ने यह सुना था और ज़ोर डाला था, अस्पताल के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने को।
दुख के आवेग में कह डाले सच को, अब यथार्थ की धरती पर खड़े हो, अपने क्लीनिक पर आंच न आ जाए। उस अस्पताल और डॉक्टर के ख़िलाफ़ कुछ बोल देने के डर से वे ऐसी मुकर गईं।
श्रेया ने डबडबाई आंसू भरी आंखों से मुड़कर देखा।
जीतू भाई के चेहरे पर कैसा भाव था। एक अफ़सोस सा, जो अंकलजी के जाने पर शायद कम था उनकी मौत को सनसनीखेज बनाने पर ज़्यादा।
तड़प कर रचना ने कहा, "हां, सच में उड़ा दिया। एक डॉक्टर क्या, उसने तो पूरी की पूरी रिपोर्ट ही अस्पताल से उड़ा दी। ज़रूर वह डॉक्टर या अस्पताल की मैनेजिंग कमेटी का कोई उसका सगेवाला रहा होगा। तभी उन्हें पहले से आगाह करके उसने यह उड़ा दी।"
मीता, श्रुति और श्रेया ने सिसक कर सोचा, 'आज सच मर नहीं दफ़न भी हो गया है। और अस्पताल के गलियारे में नहीं मुख्य आई.सी.यू. में एक बूचर को खुला छोड़ दिया गया है।
कोई है, जो उसे टोकेगा?
रोकेगा?

*****

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