top of page

खुद्दारी

डॉ. कृष्णा कांत श्रीवास्तव

दो जवान बेटे मर गए। दस साल पहले पति भी चल बसे। दौलत के नाम पर बची एक सिलाई मशीन। सत्तर साल की बूढी ममता गाँव भर के कपड़े सिलती रहती। बदले में कोई चावल दे जाता, तो कोई गेहूँ या बाजरा। सिलाई करते समय उसकी कमजोर गर्दन डमरू की तरह हिलती रहती। दरवाजे के सामने से जो भी निकलता वह उसे ‘राम–राम‘ कहना न भूलती।
दया दिखाने वालों से उसे हमेशा चिढ रहती। छोटे–छोटे बच्चे दरवाजे पर आकर ऊधम मचाते, लेकिन ममता उनको कभी बुरा भला न कहकर उल्टे खुश होती।
प्रधान जी कन्या पाठशाला के लिए चन्दा इकट्ठा करने निकले, तो ममता के घर की हालत देखकर पिघल गए — क्यों दादी, तुम हाँ कह दो, तो तुम्हें बुढ़ापा पेंशन दिलवाने की कोशिश करूँ।
ममता घायल – सी होकर बोली भगवान ने दो हाथ दिए हैं। मेरी मशीन आधा पेट रोटी दे ही देती है। मैं किसी के आगे हाथ क्यों फैलाऊँगी। क्या तुम यही कहने आये थे?
मैं तो कन्या पाठशाला बनवाने के लिए चन्दा लेने आया था। पर तेरी हालत देखकर।
तू कन्या पाठशाला बनवाएगा? ममता के झुर्रियों भरे चेहरे पर सुबह की धूप-सी खिल गई। हाँ, एक दिन जरूर बनवाऊँगा दादी। बस तेरा आशीष चाहिए।”
ममता घुटनों पर हाथ टेक कर उठी। ताक पर रखी जंग खाई संदूकची उठा लाई। काफी देर उलट-पुलट करने पर बटुआ निकला। उसमें से तीन सौ रुपये निकालकर प्रधान जी की हथेली पर रख दिए बेटे, सोचा था मरने से पहले गंगा नहाने जाऊँगी। उसी के लिए जोड़कर ये पैसे रखे थे।
तब ये रुपये मुझे क्यों दे रही हो? गंगा नहाने नहीं जाओगी?
बेटे, तुम पाठशाला बनवाओ। इससे बड़ा गंगा–स्नान और क्या होगा” - कह कर ममता फिर कपड़े सीने में जुट गई।

******

0 views0 comments

Recent Posts

See All

コメント


bottom of page