डॉ. कृष्णा कांत श्रीवास्तव
रोटी की भाग दौड़ में मैं,
प्यार जताना भूल गया।
सिर पर कामों का बोझ लाद,
मैं दिन भर फिरता रहता था।
जीवन की आपाधापी में,
मैं मुस्कुराना भूल गया।
रोटी की भाग दौड़ में मैं,
प्यार जताना भूल गया।
परायों के अफसानों में मैं
अपना किरदार ढूंढता था।
किरदार तो मेरा मिला नहीं,
अपना ही फसांना भूल गया।
रोटी की भाग दौड़ में मैं,
प्यार जताना भूल गया।
गैरों को जो मंजिल मिलती,
मैं खुश हो गले लगाता था।
इस चकाचौंध में मैं खोकर,
अपनी ही मंजिल भूल गया।
रोटी की भाग दौड़ में मैं,
प्यार जताना भूल गया।
मिला बहुत इस जीवन में,
जो चाहा था, वह मिला नहीं।
चाहत की चाहत बनने को,
मैं अपनी हस्ती भूल गया।
रोटी की भाग दौड़ में मैं,
प्यार जताना भूल गया।
इस भूलभुलैया जीवन में
‘कृष्णा’ की सीख भूल गया।
कैसा भी हो वक्त परन्तु,
मैं अपने को कैसे भूल गया।
रोटी की भाग दौड़ में मैं,
प्यार जताना भूल गया।
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