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गुरु की उदासी

मुकेश ‘नादान’

एक दिन श्रीरामकृष्ण भक्त के स्वभाव को चातक का दृष्टांत देकर समझा रहे थे, “चातक जिस प्रकार अपनी प्यास बुझाने के लिए बादल की ओर ही ताकता रहता है और उसी पर पूर्णतया निर्भर रहता है, उसी प्रकार भक्त भी अपने हृदय की प्यास और सब प्रकार के अभावों की पूर्ति के लिए केवल ईश्वर पर ही निर्भर रहता है।”
नरेंद्रनाथ उस समय वहाँ बैठे थे, एकाएक बोल उठे, “महाराज, यद्यपि यह प्रसिदूध है कि चातक पक्षी वर्षा का जल छोड़कर और कोई जल नहीं पीता, परंतु फिर भी यह बात सत्य नहीं है, अन्य पक्षियों की तरह नदी आदि 'जलाशयों में भी जल पीकर वह अपनी प्यास बुझाता है। मैंने चातक को इस तरह जल पीते हुए देखा है।”
श्रीरामकृष्ण देव ने कहा, “अच्छा! चातक अन्य पक्षियों की तरह धरती का जल भी पीता है? तब तो मेरी इतने दिनों की धारणा मिथ्या हो गई। जब तूने देखा है तो फिर उस विषय में मैं संदेह नहीं कर सकता।” बालक तुल्य स्वभाव वाले श्रीरामकृष्ण देव इतना कहकर ही निशूंचित नहीं हुए, वे सोचने लगे-यह धारणा जब मिथ्या प्रमाणित हुई, तो दूसरी धारणाएँ भी मिथ्या हो सकती हैं। यह विचार मन में आने पर वे बहुत उदास हो गए। कुछ दिन बाद नरेंद्र ने 'एक दिन उन्हें एकाएक पुकारकर कहा, “वह देखिए महाराज, चातक गंगाजी का जल पी रहा है।” श्रीरामकृष्ण देव जब देखने आए और बोले, “कहाँ रे?” नरेंद्र के दिखाने पर उन्होंने देखा, एक छोटा सा चमगादड़ पानी पी रहा है।
तब वे हँसते हुए बोले, “यह तो चमगादड़ है रे! अरे मूर्ख, तू चमगादड़ को चातक समझता है और मुझे इतने बड़े सोच में डाल दिया। अब मैं तेरी किसी बात पर विश्वास नहीं करूँगा।”
श्रीरामकृष्ण के साकार देव-देवियों और उनके क्रियाकलापों के प्रति पूर्ण विश्वासी होने पर भी नरेंद्रनाथ का इन सब पर विश्वास नहीं था। वे कह उठते-घरूप-दूप आपके मस्तिष्क का भम है।”
नरेंद्र की सत्यवादिता के संबंध में दृढ़ निश्चयी श्रीरामकृष्ण इस प्रकार हतबुद्धि होकर माँ काली से निवेदन करते, “माँ, नरेंद्र कहता है, यह सब मेरे मस्तिष्क का भम है। क्या यह सच है?” माँ इस प्रकार उन्हें समझाकर कहतीं, “नहीं, वह सब ठीक है, भम नहीं है। नरेंद्र बच्चा है, इसीलिए ऐसा कहता है।” इस प्रकार वह आश्वस्त मन से लौटकर नरेंद्र को सुना देते, “तेरी जैसी इच्छा हो, वैसा भले ही बोल, किंतु मैं उस पर विश्वास नहीं करता।”
श्रीरामकृष्ण नरेंद्र की इस प्रकार की उक्ति से साधारणतया असंतुष्ट नहीं होते थे, फिर भी नरेंद्र के कल्याण के लिए सदैव चुप ही रहते, ऐसा भी नहीं था। श्रीरामकृष्ण के विश्वास को हिला नहीं पाने पर तथा श्रीरामकृष्ण के दूवारा उनकी बात नहीं मानने पर नरेंद्र उनकी ऐसी बातों पर संदेह प्रकट करते। उन दिनों की बातों का स्मरण कर श्रीरामकृष्ण ने एक दिन भक्तों से कहा था, “माँ काली को पहले उसके जी में जो आता था वही कहता था, मैंने चिढ़कर एक दिन कहा था, “मूर्ख, तू अब यहाँ न आना'।

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