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गुरु की व्याकुलता

मुकेश ‘नादान’

नरेंद्रनाथ के दक्षिणेश्वर आगमन के कुछ दिनों बाद बाबूराम (भविष्य में स्वामी प्रेमानंद) का आवागमन शुरू हुआ। एक दिन वे रामदयाल बाबू के साथ संध्या के समय दक्षिणेश्वर पहुँचे और बहुत देर तक धर्म-चर्चा करने के उपरांत भोजन के बाद श्रीरामकृष्ण देव के कमरे में पूर्व की ओर काली मंदिर के आँगन के उत्तरी बरामदे में वे रामदयाल बाबू के साथ सो गए। तदुपरांत नरेंद्र के लिए श्रीरामकृष्ण देव की व्याकुलता उन्होंने अपनी आँखों से देखी तथा उस संबंध में उन्होंने स्वयं अपने श्रीमुख से इस प्रकार वर्णन किया था, “सोने के बाद एक घंटा भी न बीता होगा कि श्रीरामकृष्ण देव अपनी पहनी धोती को बच्चों की तरह बगल में दबाए हमारे पास आकर रामदयाल बाबू को “पुकारकर कहने लगे-घअजी, सो गए?”
हम दोनों चौंककर उठ बैठे और कहा, “जी नहीं।” सुनकर श्रीरामकृष्ण देव कहने लगे, “देखो नरेंद्र के लिए मेरा हृदय मानो अँगोछा निचोड़ने के समान हो रहा है, उसे एक बार भेंट करने के लिए कहना। वह शुद्ध सत्त्नगुण का आधार और साक्षात्‌ नारायण है। बीच-बीच में उसे देखे बिना मैं रह नहीं सकता।”
रामदयाल बाबू कुछ समय पहले से दक्षिणेश्वर आया-जाया करते थे। इसलिए श्रीरामकृष्ण देव का बालक सा व्यवहार उन्हें ज्ञात था। उनका बालक सा आचरण देखकर वे समझ गए कि श्रीरामकृष्ण देव भावविभोर हो गए हैं।
सुबह होते ही नरेंद्र से मिलकर उसे यहाँ आने के लिए वे कहेंगे, यदि कहकर वे श्रीरामकृष्ण देव को शांत करने लगे। परंतु उस रात को श्रीरामकृष्ण देव का भाव जरा भी शांत नहीं हुआ। फिर यह सोचकर कि हमारी निंद्रा में बाधा पड़ रही है, वे बीच-बीच में थोड़ी देर के लिए अपने बिस्तर पर लेट जाते थे, परंतु कुछ देर बाद उस बात को भूलकर पुन: हमारे पास आते और बहुत ही करुण भाव से कहते कि नरेंद्र को देखे बिना उनके हृदय में कैसी यंत्रणा हो रही है।

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