मुकेश ‘नादान’
नरेंद्र के लिए रामकृष्ण देव का मन मानो नरेंद्रमय हो गया था। उनके मुख से नरेंद्र के गुणानुवाद के सिवाय और कोई दूसरी बात नहीं निकलती थी। उन्होंने कहा था, “देखो, नरेंद्र शुद्ध् सत्त्वगुणी है। मैंने देखा है कि वह अखंड के घर के चार में से एक और सप्तर्षियों में से एक है।” इतना कहते-कहते श्रीरामकृष्ण देव पुत्र-विरह से व्याकुल माता के समान रोने लगे। बाद में किसी तरह अपने को सँभाल नहीं पाने के कारण वे बरामदे में चले गए और करुण स्वर में कहते-कहते रोने लगे, “माँ, उसे देखे बिना मैं रह नहीं सकता।” कुछ क्षण के बाद अपने को कुछ सँभालकर वे कमरे में आए और बोले, “इतना रोया, परंतु नरेंद्र नहीं आया। उसे एक बार देखने के लिए मेरे हृदय में बड़ी पीड़ा होती है। छाती के भीतर मानो मरोड़ उठ रहा है, परंतु मेरे खिंचाव को वह नहीं समझता।” ऐसा कहते-कहते वे फिर बाहर जाकर रोने लगे और फिर आकर कहने लगे, “मैं बूढ़ा आदमी उसके लिए बेचैन हो रहा हूँ, इतना रो रहा हूँ, मुझे देखकर लोग क्या कहेंगे, तुम्हीं लोग बताओ। तुम सब अपने हो, तुम्हारे सामने कहने में लज्जा नहीं आती, किंतु दूसरे लोग क्या सोचेंगे? मैं किसी तरह भी अपने को सम्हाल नहीं सकता।"
इस घटना के दुबारा सान्याल महाशय ने नरेंद्र के लिए रामकृष्ण देव की व्याकुलता का जिस तरह प्रत्यक्ष प्रमाण पाया था, तब एक दिन नरेंद्र के आने से श्रीरामकृष्ण के आंदोललास को देखकर भी वे उसी प्रकार विस्मित हो गए थे। उस दिन श्रीरामकृष्ण की जन्मतिथि पर भक्तगण उन्हें नए बत्र, फूल, चंदन आदि से सजाकर आनंदित हो कीर्तन कर रहे थे। नरेंद्र के नहीं आने से रामकृष्ण उद्विग्न हो गए थे। कभी-कभी चारों ओर देखते हुए भक्तों से कहते थे, “नरेंद्र तो आया नहीं।”
दोपहर के समय नरेंद्र ने आकर रामकृष्ण देव के चरणों में प्रणाम किया। तभी रामकृष्ण उछलकर उसके कंधे पर जा बैठे और भावह्विल हो गए। बाद में सहज अवस्था प्राप्त होने पर रामकृष्ण देव नरेंद्र से बातचीत करने तथा उसे खिलाने-पिलाने में लग गए। उस दिन फिर उनका कीर्तन सुनना नहीं हुआ।
नरेंद्रनाथ का मन विचारप्रवण था। ऐसे आंतरिक प्रेम के अधिकारी होकर भी बिना सोचे-विचारे वे कुछ भी ग्रहण नहीं करते थे। ऐसे निश्चल स्नेह पर भी नि:संकोच होकर वे अपनी तीक्ष्ण समालोचना का अत्र चलाते। पहले-पहल तो वे समझ ही नहीं पाते थे कि रामकृष्ण देव उनके लिए इतना प्रयत्न करते क्यों हैं। फिर उनका यह स्नेह रामकृष्ण देव को दूसरों की दृष्टि में हेय बना सकता है, इस खयाल से भी वे उद्विग्न हो जाते थे। इसी से कभी-कभी वे ऐसी कठोर बात भी कह बैठते थे, “अंतकाल में आपकी अवस्था राजा भरत की भाँति न हो जाए। राजा भरत दिन- रात अपने पालित हिरण की बात सोचते हुए मरने के बाद हिरण हो गए थे।” बालक सदृश सरल-चित्त रामकृष्ण देव इन बातें को सुनकर गहरी चिंता में डूब गए थे और उन्होंने कहा था, “तू ठीक कहता है, ठीक ही तो है, तो फिर क्या होगा, मैं तो तुझे देखे बिना रह नहीं सकता।" अत्यंत दुखी होकर वे माँ (श्री जगदंबा) के चरणों में गए, किंतु कुछ क्षणों के बाद ही हँसते हुए लौट आए और बोले, “ओरे मूर्ख, मैं तेरी बात नहीं मानूँगा। माँ ने कहा-तू उसको (नरेंद्र को) साक्षात् नारायण समझता है, इसीलिए प्यार करता है, जिस दिन उसके (नरेंद्र के) भीतर नारायण को नहीं देखेगा, उस दिन उसका मुख देखने की भी तुझे इच्छा नहीं होगी।”
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