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ग्रहण (Part 2)

लगभग बारह वर्ष पूर्व का वह दिन मेरी आँखों के सामने जीवंत हो उठा। मैं क्लीनिक में मरीज देख रही थी। एक दंपत्ति अपनी तेरह-चौदह साल की बेटी के साथ क्लीनिक पर आए। बच्ची दर्द में थी और एक ही बात बोले जा रही थी, ‘‘मुझे इंजेक्शन लगा दीजिए। मुझे मार दीजिए। मुझे नहीं जीना है।’’
रोते हुए उसके पिता ने बताया कि वह लोग एक रिश्तेदार के घर गृह प्रवेश में गए थे। बेटी का दसवीं का बोर्ड था तो वह अपने शिक्षक की प्रतीक्षा में घर पर ही रुक गई थी। हम जब शाम को लौटे तो बेटी इस हाल में मिली। वह शिक्षक दरिंदा निकला। वह हाथ जोड़कर बोले, ‘‘हम पुलिस के पास नहीं जाना चाहते डॉक्टर। उसका तो कुछ नहीं होगा हमारी लड़की बदनाम हो जाएगी। हम इसकी परीक्षा के बाद यह शहर ही छोड़ देंगे। हमारी मदद कर दीजिए।’’
मैं उनकी पीड़ा को समझ सकती थी। मेरे जेठ की बेटी इस हादसे से गुजरी थी। जेठ जी स्वयं पुलिस में थे। पर क्या लाभ हुआ पुलिस, कोर्ट, कचहरी इन सब का तनाव और समाज की हिकारत भरी नजर, वह बेचारी नहीं झेल पाई और साल पूरा होते-होते पंखे से लटक कर मर गई।
मैं बच्ची के इलाज के साथ-साथ उसकी काउंसलिंग भी करने लगी। वह जब घबराती अपनी मम्मी के साथ मेरे पास आ जाती। फिर धीरे-धीरे अकेले आने लगी। दूसरे शहर जा कर भी वह फोन से संपर्क में रही। फिर एक दिन मैंने उससे कहा, ‘‘देखो बेटा तुम 12वीं में आ गई हो, और अब पूरी तरह से ठीक हो गई हो। तुम्हारे लिए जरूरी है कि तुम इस दुर्घटना को भूल जाओ। इसके लिए तुम्हें मुझे भी भूलना होगा।’’
‘‘आपको ?....आपको कैसे भूल सकती हूँ मैं? मेरी माँ ने मुझे जन्म दिया है, पर यह नई ज़िंदगी आपकी दी हुई है।’’ वो कांपती हुई आवाज में बोली थी। ‘‘माँ कह रही हो तो माँ की बात मानो। सब कुछ भूल कर एक नई जिंदगी जियो। जब शादी करोगी तो मुझे जरूर बताना, मैं आऊंगी।’’
‘‘शादी?...... मैं..... मैं ...मुझसे कौन शादी करेगा?’’
‘‘क्यों तुमने कौन सा पाप किया है? तुम शादी करोगी और एक आम ज़िन्दगी जीओगी। बस इस दुर्घटना का जिक्र किसी से कभी नहीं करना। मैंने अपनी मेडिकल फाइल में भी तुम्हारा असली नाम नहीं लिखा है। उसमें तुम छाया हो। तुम अपने असली नाम के साथ आराम से जियो और आठ साल के लंबे अंतराल के बाद आज अचानक वही छाया, प्रिया के रूप में मेरे सामने थी।
बेटे की आवाज से मैं वापस वर्तमान में लौट आई। ‘‘माँ, इसे क्या हुआ?’’ ‘‘डर गई है। बिना गलती के गिल्टी महसूस कर रही है।’’ प्रिया के सिर पर हाथ फेरते हुए मैंने जवाब दिया।
‘‘बिना गलती के कैसे? इसी की वजह से तो आप इतना थकीं।’’ प्रिया की ओर देखते हुए ऋतिक बोला।
‘‘.......... प्रिया सिर उठाकर अपलक ऋतिक को देख रही थी।’’
‘‘अब तुम्हारी सजा ये है प्रिया, कि अब तुम माँ के लिए चाय बना कर लाओ और जो बचे उसमें से थोड़ी सी मुझे भी दे देना।’’ कमरे का वातावरण थोड़ा हल्का हो गया।
तकिया की टेक के सहारे दोनों ने मुझे बैठा दिया। चाय पीते हुए मैंने प्रिया की ओर देखा। ‘‘प्रिया चाय तो तुमने अच्छी बनाई है। चलो रसोई में तुम पास हो गई। पर अभी तुम्हारी परीक्षा बाकी है। मेरी बहू बनने के लिए तुम्हें एक परीक्षा और पास करनी होगी।’’
प्रिया और ऋतिक दोनों एक दूसरे की ओर देखने लगे।
‘‘माँ?’’ ऋतिक हिचकता सा बोला।
‘‘तुम्हें ऐतराज है क्या?’’
‘‘न, न....नहीं माँ।’’
‘‘तुम्हें प्रिया?’’
नहीं... बिल्कुल नहीं।
‘‘ठीक है, फिर ऋतिक तुम अपने कमरे में जाओ मुझे अकेले प्रिया से बात करनी है। उसके बाद तुम्हें बुला लेंगे।’’
‘‘जी’’ चकित सा ऋतिक खड़ा हो गया और प्रिया की ओर देखता हुआ बाहर चला गया।
प्रिया अब सीधे मेरी ओर देख रही थी।
“प्रिया, मुझे तुमसे एक वादा चाहिए।’’
‘‘माँ, मुझ जैसी ग्रहण लगी लड़की को आप जानते बूझते हुए क्यों स्वीकार रही हैं अपने इतने लायक बेटे के लिए। आप मना भी तो कर सकती हैं।’’
क्यों मना करूंगी, तुम्हारे जैसी कोमल हृदय वाली बेटी, मेरी बहू बने यही तो हमेशा चाहा है मैंने। तुमसे, तुम्हारे साथ से, मेरे बेटे की खुशियाँ हैं। यह खुशी मैं उसे देना चाहती हूँ। बस एक वादा चाहिए तुमसे।’’
‘‘कौन सा वादा माँ?’’
‘‘कभी, किसी भी कमजोर पल में उस हादसे का जिक्र ऋतिक से नहीं करोगी। यही वादा चाहिए मुझे।’’
‘‘इतनी बड़ी बात छुपाना क्या उचित होगा?’’
‘‘प्रिया जिंदगी में बहुत से हादसे होते हैं। क्या हम हमेशा उनका बोझा पीठ पर ढोते रहते हैं? वे घट कर अतीत हो जाते हैं। यही होना भी चाहिए ।’’ ‘‘.....वह मौन मुझे देख रही थी। प्रिया, मेरा बेटा बहुत सुलझा हुआ है फिर भी मैं नहीं चाहती कि किसी अनचाहे अतीत का काला साया मेरे बेटे बहू के जीवन में बेचैनियाँ लाए। इसीलिये...।’’
‘‘आपकी भावना समझ सकती हूँ। माँ, मैं आपसे वादा करती हूँ, मेरे मरने तक इस बात का जिक्र मेरी जुबान पर कभी नहीं आएगा।’’ प्रिया मेरा हाथ पकड़े हुए थी। ‘‘प्रिया, अपने मम्मी पापा से कहना कि जब वे आएंगे तो हम पहली बार मिल रहे होंगे। यह याद रखेंगे।’’
‘माँ, आप बहुत महान हैं।’ भावुकता में प्रिया मेरे गले लग गई।
प्यार से उसकी पीठ थपथपा कर मैंने कहा ,‘अब ऋतिक को बुला लो।’
प्रिया के साथ ऋतिक कमरे में आया तो उसके चेहरे पर प्रश्न साफ दिखाई दे रहा था।
‘तेरी प्रिया, मेरी परीक्षा में पास हो गई। यह चाँद सी सुंदर लड़की मुझे बहू के रूप में स्वीकार है।’
‘चाँद में तो दाग होता है माँ। ग्रहण लगता है।’ ऋतिक ने प्रिया को छेड़ने के अंदाज में कहा।
‘चांद उस ग्रहण के साथ ही तो पूर्ण होता है बेटा। वैसे ही हम सब भी अनेक अच्छाई और बुराई के पुतले हैं और हमें एक दूसरे को संपूर्णता में स्वीकारना होता है। प्रिया हम दोनों को हमारी कमियों के साथ स्वीकारेगी और हम दोनों को भी प्रिया को उसकी सारी अच्छाई और सारी बुराई के साथ उसे स्वीकारना होगा।’
‘मैं ..तो ...माँ...।”
‘मैं जानती हूँ। तू उसे छेड़ रहा है। ......अच्छा अब तुम दोनों रसोई से कुछ लाकर खिलाओ तो मुझे, भूख लग गई है।’
उठते हुए प्रिया बोली, ‘मैं लाती हूँ माँ।’
‘........और हां प्रिया, अपने मम्मी-पापा से बोलना मुझसे जल्दी आकर मिलें। और उन्हें यह भी बता देना कि मुझे शादी की जल्दी है।’
ऋतिक और प्रिया के चेहरे खिल उठे और दोनों मुस्कुराते हुए कमरे से बाहर चले गए।

समाप्त
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