डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव
बहुत पुरानी बात है। एक जंगल में हरे भरे एवं बड़े-बड़े बहुत सारे वृक्ष थे। उन वृक्षों पर तरह-तरह के पंछी चहचहाते रहते थे। सभी पेड़ बड़ी खुशहाली से उस जंगल में रहते थे, क्योंकि वह जंगल बहुत घना था। जिसके कारण वहां कोई लकड़हारा नहीं आता था।
काफी साल गुजर गए एक दिन उनकी खुशनुमा जिंदगी में एक लकड़हारा आ गया। उसने कहा - अगर मैं इन सब पेड़ों को काट दूंगा, तो मुझे इनसे बहुत सारी लकड़ियां मिल जाएंगी और इन्हें बेचकर मैं बहुत सारा पैसा कमा लूंगा।
यह सारी बातें सुनकर पेड़ चिंतित होने लगे। उन्होंने सोचा की अब हमें कोई नहीं बचा सकता। लेकिन उसी में से एक बूढ़े पेड़ ने कहा – फिक्र मत करो! उस लकड़हारे के हाथ में जो कुल्हाड़ी है, वह बिना हत्थे की है। बिना हत्थे के वह हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता है।
लकड़हारे ने काफी देर तक बहुत परिश्रम किया। मगर कोई लाभ नहीं हुआ। उसने सोचा इतने मोटे-मोटे पेड़ों को कैसे काटू? मेरे पास तो कुल्हाड़ी भी बिना हत्थे की है। यही सब बातें सोच कर लकड़हारा वापिस अपने घर जाने लगा। यह देखकर सभी पेड़ कहने लगे- लकड़हारा हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पाया।
अगले दिन लकड़हारे को एक तरकीब सूझी, उसने सोचा - अगर मैं इस कुल्हाड़ी में लकड़ी का एक हत्था लगा दूं, तो मेरा काम आसान हो जाएगा। वह लकड़ी का हत्था कुल्हाड़ी में लगाकर फिर उसी जंगल में पहुंचा। सभी पेड़ लकड़हारे को फिर देख कर डर गए। क्योंकि अबकी बार उसके हाथ में जो कुल्हाड़ी थी, उसमें एक लकड़ी का हत्था लगा हुआ था। उनमें से एक पेड़ ने कहा- लगता है हम नहीं बच पाएंगे क्योंकि हमारी एक लकड़ी उसकी कुल्हाड़ी से जा मिली है। लकड़हारे ने सारे पेड़ काट डाले। लोहे की कुल्हाड़ी में लकड़ी का हत्था ना होता तो शायद पेड़ कटने से बच जाते। आखिर पेड़ की लकड़ी ही पेड़ों की दुश्मन बन गई। अगर लकड़ी की सहायता नहीं मिली होती तो लोहे की कुल्हाड़ी पेड़ को काट नहीं पाई होती।
पेड़ का एक अंश लकड़ी कुल्हाड़ी से जुड़ गई थी। इसलिए उस लकड़ी ने ‘घर का भेदी लंका ढाए’ वाला काम किया। अब बेचारे पेड़ कैसे बच सकते थे?
इसी प्रकार देश या समाज को अपने देश के ही गद्दारों से ज्यादा खतरा होता है।
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