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घर का भोजन

सरला सिंह

एक स्त्री के पास एक बड़ा सा घर था, बड़े-बड़े १२ कमरों वाला। वह स्त्री अकेली रहती थी, तो उसने सोचा क्यों न वह उसमें नवयुवकों को पेइंग गेस्ट के रूप में रख लूं। आमदनी भी होगी एवं मेरा अकेलापन भी दूर हो जाएगा।
उसने हर कमरे में दो-दो पलंग बिछवा कर शेष सारी सुविधाएं जुटा लीं।
उसे भोजन बनाने और खिलाने का भी बहुत शौक था। सुबह सब को नाश्ता करवाती और दोपहर के लिए भी पैकेट बना कर देती।
रात को तो खैर सबको गर्मागर्म भोजन मिलता ही था।
और वह स्त्री यह सब पूरा महीना बिना कोई छुट्टी लिए प्रेम पूर्वक करती थी।
छह माह बीत गए। एक दिन उसकी बहुत पुरानी सखी उससे मिलने आई।
बातचीत में उस स्त्री ने अपनी सहेली को बताया कि वह अब महीने में केवल २८ दिन ही भोजन बनाती है। बाकी के दो या तीन दिन सब को अपने भोजन की व्यवस्था स्वयं करनी होती है।
सहेली को कुछ आश्चर्य हुआ और उसने पूछा, “ऐसा क्यों? पहले तो तुम इन्हें पूरा महीना प्यार से भोजन करवाती थी।"
स्त्री ने कहा, “मैं पैसे भी अब २८ दिन के ही लेती हूं।”
“पर यह लोग तो तुम्हें पूरे महीने के देने को तैयार है न! अब यह बेचारे युवक दो दिन क्या खाते होंगे?”
“बात पैसों की नहीं है।”
“तो फिर?”
“मैं पूरे मन से खाना बनाती थी और खिलाती भी प्यार से थी, परन्तु मुझे हर समय शिकायतें ही सुनने को मिलती। हर दिन कोई न कोई कमी निकाल ही लेते। कभी "नमक कम है" और कभी "रोटी ठंडी है” कह कर मुझे सुनाते।
परन्तु जब से उन्हें दो दिन भोजन ढंग का नहीं मिलता और बाहर पैसे भी अधिक देने पड़ते हैं, तो अब वह मेरे बनाए भोजन की कद्र करने लगे हैं और बिना त्रुटि निकाले खाते हैं।
मैं अपनी ग़लती सुधारने को तैयार हूं, परंतु बिना बात नुक़्ताचीनी सुनने को नहीं।”

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