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चूल्हे

मंजू यादव 'किरण'

मेरे साहब (पतिदेव) खाना खाकर सोफे पर बैठते हुए बड़े खुशनुमा मूड में थे, बोले, "आज तो खाने में मजा आ गया। खाना मेरी बहू ने इनको परोस कर खिलाया था, बहू भी सुनकर खुश हो गई कि पापा जी को खाना इतना पसंद आया। हालांकि खाना बनाने वाली लगी हुई थी, पर इनकी दो रोटी मेरी बहू जभी बनाती थी, जब ये खाना खाते थे।
इन दिनों गर्मियों की छुट्टियां चल रही थीं, घर में मेरी तीनों बेटियां अपने बच्चों के साथ आयीं हुयी थीं। बेटा बहू हम लोगों के साथ ही रहते थे, तो मैं अपने साहब के खुशनुमा मूड के बारे में बात कर रही थी, आज वो बच्चों को कुछ बताने के मूड में भी थे। आज का खाना भी उनको इतना पसंद आया कि खाने की तारीफ भी बहुत कर रहे थे, जबकि खाना तो रोज ही अच्छा बनता था। लेकिन जब सब लोग घर में होते हैं तो ये किसी बात को तूल पकड़ कर उसकी तारीफ जरूर करते थे। ये उनकी आदत में शुमार था, मैं भी यही अंदाज लगा रही थी कि आज किस बात की तारीफ होगी।
तुम्हारी मम्मी का खाना बनाना उस समय में इतना आसान नहीं था, इतना खाना नहीं बनता था जितने प्रकार के चूल्हे घर में थे। अब मेरी चौंकने की बारी थी, कि ये पता नहीं आज क्या सुना रहे हैं बच्चों को। ये बता रहे थे कि लकड़ी जला कर चूल्हे पर तो खाना बनाना आता ही नहीं था, एक अंगीठी का इंतजाम किया गया जिसको लोग सिगड़ी भी बोलते हैं। जब अंगीठी आ गई तो तुम्हारी मम्मी को अंगीठी जलानी नहीं आती थी। हमारी बेचारी मकान-मालकिन तुम्हारी मम्मी की अंगीठी जलाती थी या ये कह लो उन्होंने ही इनको अंगीठी जलानी सिखाई। जब अंगीठी जल जाती थी तो खाना तो ये बना लिया करती थीं, पर उसमें भी जला-भुना, सफाई में ये कहना कि अंगीठी की आंच बहुत तेज होती है। खाना जल जाता है, तब दो लोगों की जरा सी दाल पतीली में चढ़ाती थीं दाल ही नहीं गलती थी। हां ये बात तो है उस समय हमारे यहां कुकर नहीं होते थे, खाना बनाने में बहुत समय लग जाता था। अंगीठी जलाने में समय भी बहुत लगता था, फिर खरीदा गया पैराडाइज का पीतल का स्टोव, वो मिट्टी के तेल से जलता था। कुछ दिनों तक तुम्हारी मम्मी को वो स्टोव बहुत पसंद आया, उसमें वो खाना कुकर न होने पर भी फटाफट बना लिया करती थीं। पर वो स्टोव भी तुम्हारी मम्मी को कुछ दिनों तक ही अच्छा लगा, कहने लगीं ये आवाज बहुत करता है, मेरे तो कान सुन्न पड़ जाते हैं। मतलब वो स्टोव स्टोर में कबाड़ की तरह रख दिया गया।
अब बारी आई दस बत्तियों वाले स्टोव की, उसको जलाने पर कोई आवाज नहीं होती थी। वो तुम्हारी मम्मी को बहुत पसंद आया, पर कितने दिन। उस स्टोव में भी कमी निकाल दी गयी कि इसमें बर्तन भी काले हो जाते हैं और कुछ दिनों बाद बत्तियों को भी खींच कर ऊपर करना पड़ता है। बाद में उसमें बत्तियां भी नयी डालनी पड़ती है, मतलब दस बत्ती वाला स्टोव भी पीतल वाले स्टोव के पास पहुंचा दिया गया।
वैसे तब तक घर में गैस भी आ गई थी, ये १९७२ की बात है लेकिन उन दिनों गैस के कनेक्शन के साथ एक ही सिलेंडर आता था। गैस खत्म होने पर सिलेंडर जल्दी से नहीं मिलता था। एक दिन तुम्हारी मम्मी किसी के घर बुरादे वाली अंगीठी देखकर आयीं, एक दिन जब मैं ऑफिस से घर आया तो मैंने देखा जीने के नीचे बहुत सारा बुरादा घर में पड़ा है। मैंने तुम्हारी मम्मी से पूछा, "ये सब क्या है।"
तुम्हारी मम्मी ने एक नयी प्रकार की अंगीठी मुझे दिखायी और बताते समय बहुत उत्सुक थीं, मुझसे बोली, "ये अंगीठी मैंने छेदीलाल (नौकर) से मंगा ली, इसको एक दिन अच्छी तरह भर लो और ये तीन दिन तक खाना अच्छी तरह बनाती है, कोई परेशानी नहीं होती है। खाना बनाने के बाद इसके दोनों ढक्कन को बंद कर दो, अंगीठी बुझ जाती है।
जब हमको जलानी हो, तब इसके ढक्कन खोल कर इसमें सिर्फ माचिस की जलती हुई तीली डाल दीजिए ये अंगीठी जलने लगेगी।"
इन्होंने बच्चों को बताया कि मैंने तुम्हारी मम्मी से पूछा कि अब तो तुम्हारे पास गैस है, फिर तुमने अंगीठी क्यों खरीदी। तुम्हारी मम्मी का तर्क ये था जब गैस खत्म हो जाया करेगी तब के लिए बुरादे वाली अंगीठी खरीदी है। एक दिन बुरादे वाली अंगीठी में खाना बनाते समय उसके ऊपर थोड़ा जोर से बर्तन रख दिया फिर क्या था अंगीठी का सारा बुरादा भरभरा कर गिर गया। उस दिन हम लोगों को खाना खाने होटल में जाना पड़ा और अगले दिन ही वो अंगीठी कबाड़ घर में और अंगीठियों के पास रख दी गई। गैस होते हुए भी सिलेंडर खत्म होने पर बहुत परेशानी हो जाती थी, बच्चों को भी इनकी बातों में मजा आने लगा वो अपने पापा से बोले, "पापा! तब सिलेंडर की इतनी दिक्कत थी।"
इन्होंने बच्चों को बताया जब हम लोग ऋषिकेश में रहते थे, तब सिलेंडर देहरादून में मिलता था, जब हम लोग मथुरा में रहते थे तब सिलेंडर खत्म होने पर आगरा से लाना पड़ता था। तब गैस की एजेंसी हर जगह नहीं होती थी, दो-चार दिन तो बहुत जहमत उठानी पड़ती थी। तुम्हारी मम्मी को फिर उन दिनों गुठली वाले कोयले मंगाने का शौक हुआ, वो वाले स्पेशल कोयले भी मंगाये गये, अब तुम्हारी मम्मी खुद अंगीठी नहीं जलाती थीं, नौकर-चाकर अंगीठी जलाकर ले आते थे। तब तुम्हारी मम्मी खाना बना दिया करती थीं। इनकी सारी बातें सुनकर मैं मन ही मन गुस्सा तो बहुत हो रही थी कि मुझे बच्चों के आगे कितना ज़लील कर रहे हैं, पता नहीं आज क्या चूल्हा-पुराण लेकर बैठ गये हैं।
ये भी समझ रहे थे कि मैं मन ही मन सुलग रही हूं, मुझको शांत करने के इरादे से बोले, "एक बात काबिले तारीफ ये है कि तुम्हारी मम्मी खाना अपने हाथों से बनाया करती थीं, ये नहीं तुम लोगों की तरह से नहीं थीं कि खाना बनाने वाली से खाना बनवा लें।"
तुम लोगों का काम तो केवल खाना परोसने तक ही रह गया है, ऐसी नहीं थी तुम्हारी मम्मी सबको बड़े प्यार से खाना बना कर खिलाया करती थीं। इतना कहकर हमारे साहब अपने कमरे में हंसते हुए आराम करने चले गए, मैं भी इनकी खबर लेने इनके पीछे-पीछे कमरे में चली गयी। जब मैं कमरे में पहुंची, तो ये मुझसे हंसते हुए कह रहे थे, "मैंने कुछ ग़लत तो नहीं कहा, तुम्हारी तारीफ ही कर रहा था।"
अब मैं इनसे और क्या कहती!!!

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