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जाने-अनजाने

रतन चंद 'रत्नेश'

स्टॉपेज पर खड़ा मैं लोकल बस की प्रतीक्षा कर रहा था। इस बस से फिलहाल मुझे अंतरराज्यीय बस-अड्डे तक जाना था। वहाँ जाकर ही निर्णय लेना था कि अब कहाँ पहुँचना है? कहीं दूर नहीं, बस वहाँ से पंद्रह-बीस किलोमीटर दूर कहीं राह में किसी गाँव से लगते स्टॉपेज पर उतर जाना था। फिर हरे-भरे खेतों के बीच से गाँव की ओर जाती राह पर टहलते हुए उधर की ओर निकल जाना था। उसके बाद दो-चार घंटे यों ही गाँव या खेतों के आसपास गुजारकर वापस लौट आना था। शहर की भागमभाग और एकरस जीवन से इस तरह पीछा छुड़ाकर 'रिलैक्स' होने की यह मेरी बहुत पुरानी आदत है। युवावस्था में तो महीने में दो-तीन चक्कर इस तरह लग जाते थे। कैमरा साथ हुआ करता था और ग्राम्य-जीवन की कई तस्वीरों को उसमें कैद कर लिया करता था। अब उम्र ढलने के साथ-साथ यह दौरा कई महीनों के अंतराल पर जा पहुँचा है। घर से दूर कहीं जाने की इच्छा ही नहीं होती अब। वैसे कैमरा अब भी साथ होता है और अब वह डिजिटल भी है। पहले वाला साढ़े तीन सौ का कैमरा अब भी संभाले हुए हूँ हालांकि उसे इस्तेमाल में लाने की अब जरूरत भी नहीं रह गई है। फोटो खींचने में भी बहुत चूजी हो गया हूँ जबकि डिजिटल कैमरे में खर्चे का सवाल तंग नहीं करता।
विगत कुछ दिनों से एक अनजानी सी उदासी जब तब घेर रही थी। कभी देर रात परेशान करती तो अपना मनपसंद किताब पढ़ते। सोचा, उसी पुराने कारगर फार्मूले को अपनाऊँ।
बस आई तो खचाखच भरी हुई थी। नौ-दस बजे के दरमियान ऐसा होना स्वाभाविक है। पिछले द्वार से किसी तरह जगह बनाते हुए मैं भी बस के अंदर दाखिल हुआ और पीछे जाकर एक डंडे का सहारा लेकर खड़ा हो गया। कंडक्टर अपनी आदतन आवाज में जोर से बोले जा रहा था 'बगैर टिकट कोई न रहे... अपना-अपना टिकट ले लो।'
कंडक्टर के इर्द-गिर्द थोड़ी सी जगह बनी तो मैं भी दस रुपए थामे उसकी ओर बढ़ा। कंडक्टरों के एक से रहने वाले चेहरे के साथ जैसे ही उसने मेरे नोट की ओर हाथ बढ़ाया कि मुझसे आँखें मिलते ही वह अपनी सीट से खड़ा हो गया 'आइए सर।'
अब उसके चेहरे पर मुस्कुराहट थी जो उसने अब तक शायद कहीं छुपाकर रखी थी। आसपास खडे लोगों के चेहरे मेरे चेहरे पर प्रश्न बनाने लगे। मुझे सीट की नितांत आवश्यकता थी। उम्र जो ऐसी ठहरी। अत: उसके सीट छोड़ने पर मैं कंडक्टर-सीट पर जा बैठा। वह पास ही मेरे बगल में खड़ा था। मैंने फिर से दस रुपए का नोट उसकी ओर बढ़ाया। उसने उसी तरह मुस्कुराते हुए कहा, 'क्यों शर्मिंदा करते हैं सर?'
असल में उस समय शर्मिंदा मैं हो रहा था। अब तक गौर से उसके चेहरे के हर भाव की सूक्ष्मता से पड़ताल करता रहा था परंतु मुझे उसमें कहीं भी अपना परिचित नज़र नहीं आ रहा था। किराये के पैसे न लेने पर मैं शर्मिंदगी के साथ-साथ परेशानी का भी अनुभव कर रहा था, इसलिए मैंने स्पष्ट शब्दों में उससे कह दिया, 'लगता है मुझे पहचानने में आपसे गलती हो रही है।'
वह हँस पड़ा, 'गलती मुझसे नहीं, आपसे हो रही है सर।'
उसके ऐसा कहने पर मुझे अपनी साठ की उम्र छूने का दोष दिखने लगा। फिर भी अपने विश्वास को दृढ़ बनाये रखते हुए मन-ही-मन कहा, ऐसा तो पहले कभी हुआ नहीं।
मैं उसे लगातार पहचानने की कोशिश कर रहा था। अपने से बड़ों को अंकल या सर कहना आम बात है। फिर भी मैं उस कंडक्टर में उन्हें तलाशने लगा जिन्हें बचपन में ट्यूशन पढ़ाया हो। उन दिनों नौकरी के साथ-साथ अतिरिक्त आय के लिए मैं बच्चों की ट्यूशनें लिया करता था, परंतु वे भी अधिक नहीं थे। मुश्किल से बीस एक छात्र-छात्राओं को अंग्रेजी और मैथ पढ़ाया हूँगा। अधिकतर बच्चे मुझसे इन दो विषयों की ही ट्यूशनें लिया करते थे परंतु मैंने इन छात्रों की संख्या इतनी नहीं बढ़ने दी कि परिवार की जिम्मेदारियों से विमुख हो जाता। बहरहाल उन सबको एक-एक कर जल्दी से याद किया परंतु कोई भी चेहरा इससे मेल नहीं खाया। फिर मैंने अपने दिमाग पर अधिक जोर भी नहीं डाला, न ही अन्य दूसरे चेहरों में उसे तलाशने की जद्दोज़हद की। अंतत: यह अपना परिचय देगा ही जब उसने मुझे पहचान लिया है।
बस में भीड़ धीरे-धीरे घटती गई और अब सीटें भी खाली होने लगी थीं। मैंने उसकी सीट छोड़ दी और पास ही दूसरी सीट पर बैठ गया।
'मैंने तुम्हें बिल्कुल नहीं पहचाना।' मैंने उससे कहा।
मेरे प्रश्न का उत्तर देने के वजाय उसने कहा, 'आप तो बिल्कुल वैसे ही हैं सर। शायद मैं बदल गया हूँ।'
वाकई मेरा कद, वजन, डीलडौल हमेशा एक-सा रहा है। इस उम्र में भी सिर के बाल अधिकतर काले हैं। सिर्फ कलम सफेद हुए हैं या फिर मूंछें। मैंने हँसकर उससे कहा, 'तुम बदल गए या मैं सठिया गया हूँ, क्या पता?... पर अब तो बता दो, कौन हो तुम? इतना आदर-मान दे रहे हो, किराये के पैसे भी नहीं ले रहे?'
इससे पहले कि वह मेरे प्रश्नों का उत्तर देकर मुझे आश्वस्त करता, अगला स्टॉपेज आ गया जहाँ सात-आठ सवारियाँ बस पर सवार हुईं। वह उनका टिकट काटने में व्यस्त हो गया। मेरे मन में उथल-पुथल बढ़ती जा रही थी। मैं उसे टिकट काटते ध्यान से देखता रहा पर सचमुच पहचानने में असफल रहा। उस समय मेरे सामने कई ऐसे उम्रदराज आकर खड़े हो गए जिन्होंने कुछेक वर्षों बाद मुझे पहचानने से इनकार कर दिया था। बाद में जब उन्हें अपना परिचय दिया तो वे बड़े गर्मजोशी से मिले।
टिकट काट लेने के बाद वह मेरे मुखातिब हुआ। 'आप अब भी ज़ीरकपुर में ही रह रहे हैं? '
मैं मुस्कुरा उठा और लगा, जैसे सिर से एक भारी बोझ उतर गया हो। मेरे लिए सबसे खुशी की बात यह थी कि मेरी याददास्त अब भी सलामत थी जिस पर अब तक मुझे शक होने लगा था।
मैंने उससे कहा, 'देखा, मैंने पहले ही कहा था कि तुमसे भूल हो रही है। मैं कभी ज़ीरकपुर में नहीं रहा हूँ।'
ऐसा सुनने के बावजूद उसके चेहरे के हावभाव में मेरे प्रति तनिक भी बदलाव नहीं आया। वह पहले की तरह ही मुस्कुराता रहा। शायद उसने मुकम्मल तौर पर मान लिया था कि मैं सठिया गया हूँ। वह अपनी पहचान को बरकरार रखना चाहता था।
मैं भी हार मानने वाला नहीं था। कहा, 'क्यों भूल हो गई न? होता है कभी-कभी ऐसा। कहते हैं कि इस दुनिया में एक ही शक्ल के सात व्यक्ति होते हैं। उनमें से ही आपका कोई ऐसा है जिसकी शक्ल मुझसे मिलती हो। तुमने उसे मुझमें पहचान लिया। यह लो...अब तो किराये के यह दस रुपए पकड़ो। कहीं चेकिंग हुई तो मैं खामख्वाह रगड़ा जाऊँगा।' मैंने वही नोट फिर से उसके आगे बढ़ाया परंतु उसने लेने से इनकार कर दिया और पूछा, 'आजकल आप कहाँ रह रहे हैं?'
मैंने अपने आवास वाले इलाके के बारे में उसे बताया तो उसने कहा, 'एक दिन आऊँगा जरूर आपके घर। आंटीजी कैसी हैं?'
मैंने कहा, 'वे तो ठीक हैं परंतु तुम अब भी गलत हो।'
मेरे कहे पर वह जोर से हँसा। सवारियों के साथ-साथ बस ड्राइवर भी मिरर में हमारी ओर देखने लगा।
थोड़ी ही देर में अंतरराज्यीय बस-अड्डा आ गया। कंडक्टर बस से उतरकर द्वार के पास खड़ा हो गया और मेरे उतरने की प्रतीक्षा करने लगा। मैं जब उतरा तो वह अनुरोध करने लगा, 'सर आइए, थोड़ी-थोड़ी चाय पीते हैं।'
पर न जाने क्यों अब मैं उससे जल्दी से पीछा छुड़ा लेना चाहता था। कहा, 'अभी जल्दी में हूँ। चाय नहीं पीऊँगा। तुम मेरे घर तो आ ही रहे हो किसी दिन, उसी दिन इकट्ठे चाय पीएंगे।'
वह मुझसे विदा लेकर बस-अड्डे की भीड़ में कहीं खो गया। मैं वहाँ खड़ा-खड़ा सोचता रहा... परंतु उसने मेरे घर का पूरा पता तो लिया ही नहीं।'

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