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जिंदगी जहां ले जाए

डॉ. जहान सिंह ‘जहान’

अभ्रक की विशाल पहाड़ियां, घने जंगल से गुजरती पतली पगडंडियां। रात में अनगिनत जुगनूओं से टिमटिमाता क्षेत्र। झरनों से गिरते पानी का अद्भुत संगीत। सम्मोहन से जकड़े हुए अंधेरा। अगर कुछ सुनाई पड़ रहा था तो अपनी सांसे। या यदा-कदा खौफनाक जानवरों का चीत्कार जो सिर्फ सिहरन और भय पैदा कर देता। इस जादुई सन्नाटे को तोड़ रहा था तो जीप का हॉर्न।
ठा0 भूपेंद्र सिंह रूपगढ़ के जमीदार बड़ी कद-काठी, घुड़सवारी और शिकार का खानदानी शौक। पचास साल पार कर चुके लेकिन नौजवानों जैसी फुर्ती, अचूक निशानेबाज। पड़ोस के चालीस गांव में दबदबा। उनकी मां ठकुराइन रूप कुंवर अपनी शान और संस्कार विरासत में दे गई थीं।
ठा0 भूपेंद्र सिंह दस हाकारो और तमाम लाव लश्कर के साथ तीन दिनों से जंगल में डेरा डाले थे। पता चला कि आज की रात नदी पार जंगली सूअरों का झुंड आया है। जो ठाकुर साहब के नए लगाए चाय के बागान से गुजरेगा। शायद नया चाय का बागान उजड़ ना जाए। इस चिंता से शेर के शिकार का प्लान बदलकर अपना पूरा दलबल लेकर सोना नदी की तरफ चल दिए। जब घड़ी देखी तो सुबह के 3:00 बज चुके थे। बोझल आंखें गजब की थकान और सर्द रात अजीब सी उलझन पैदा कर रही थी। लेकिन किस में हिम्मत जो चू चपड कर सके। सब थके से शिकार के नशे में बस चले जा रहे थे। झाड़ियों की सरसराहट ने अचानक जीप को तुरंत ब्रेक लगाकर रोकने को मजबूर कर दिया।
ठाकुर साहब की पीछे वाली जीप भी चीं करके रुक गई। पीछे से आवाज आई कि काफिला क्यों रोका गया। ड्राइवर गुलजारी ने होठों पर उंगली रखकर चुप रहने का संकेत दिया और सर्च लाइट डाली तो बड़ी चमकीली आंखें दिखाई पड़ी। सर्च लाइट घुमा कर देखी तो दो नहीं है सैकड़ों जोड़ें स्थिर गति से निहार रहे थे। ठाकुर साहब को समझने में जरा भी देर नहीं लगी कि खूंखार जंगली सूअरों का हमला होने वाला है। एक भयानक विशाल भारी-भरकम दो-दो फुट नुकीले वीरो वाला सूअर आक्रमक मुद्रा में समूह का नेतृत्व कर रहा था। ठाकुर साहब दे दो नाली बंदूक निकाल कर धायं-धायं दो फायर दाग दिए। सूअर तेजी से पलटा और भागने की कोशिश में तार की लगी झाड़ी में फंस गया। खून से लथपथ तारों से उलझ कर पेट से अंतडियां बाहर झांकने लगी थी। पर ना जाने किस पुकार पर अनोखी ताकत से भागा जा रहा था।
वर्षों बाद इतना बड़ा शिकार छोड़ना नहीं चाह रहे थे। सुबह की पै फटने वाली थी। पुराने शिकारी का शौक, खून के दाग देखते हुए पहाड़ी की ढलान पर पीछा करने लगे। मीलों की दूरी तय करने के बाद अचानक एक बड़ी झाड़ी पर रास्ता खत्म हो गया। ठाकुर साहब ने बंदूक से फिर निशाना लेते हुए झाड़ी के पीछे गए तो उनकी मौत दिखी झांका तो दिल दहलाने वाला दृश्य था। वह एक माँ थी। अपने छोटे-छोटे बच्चों के बीच आकर दम तोड़ रही थी। आंखों में आंसू दर्द से चिन्ह आरती हुई बच्चों को दुलार कर प्यार कर रही थी। इतने पुराने शिकारी का भी एक बार दिल दहल गया। वापस आने का मन बना ही रहे थे। तो अचानक ख्याल आया कि इस तड़प-तड़प के जान देने से तो अच्छा होगा कि इसको तुरंत मृत्यु प्राप्त हो जाए। बिना सोचे दो गोलियां और दाग दी। बच्चे डर से दूर जाकर दुबक गए, यह कौन सी शक्ति थी। जो घायल मां को इतनी दूर खींच लाई। शायद मां का बच्चों से प्यार। यह ठाकुर साहब भूपेंद्र सिंह के जीवन का आखिरी शिकार था। जिसने हमेशा के लिए हृदय परिवर्तन कर दिया है कि बेगुनाह जानवरों की हत्या नहीं होनी चाहिए। उनमें भी किसी बच्चे की मां हो सकती है।
घाटी के किनारे लगे कैंप में दोपहर 2:00 बजे ठाकुर भूपेंद्र ने एक लंबी अंगड़ाई लेकर आंखें खोली। तेज धूप लेकिन हवाओं में शरद लहर एक अजीब एहसास। जब कभी इतनी दूर तक आते हैं। इस क्षेत्र में तो एक याद उनको परेशान करने लगती है वह है। वहां से तीन मील दूरी पर स्थित माधवगढ़ की हवेली। जिसकी मालकिन राजकुमारी जगरानी जो अपनी खूबसूरती के लिए दूर-दूर तक जानी जाती है। घुड़सवारी, तीरंदाजी का बचपन से ही शौक। उनके पति राजा गोपालराय सोनापुर के मेले में घोड़े से गिरकर घायल ऐसे हुए कि बिस्तर पकड़ा और कुछ समय बाद महल में ही दम तोड़ दिया। अचानक उनकी मृत्यु के बाद पूरी देख-रेख की जिम्मेदारी राजकुमारी जगरानी ने संभाली। अंग्रेजों का शिकंजा कसता जा रहा था। जमीनों के लगान, लेनदेन के झगड़े बढ़ते जा रहे थे।
आए दिन कोर्ट कचहरी का आना-जाना। सरकारी दखलअंदाजी इतनी हो गई थी कि कभी-कभी तो विधवा राजकुमारी जगरानी जो अपने इलाके में छोटी पंडिताइन के नाम से ज्यादा प्रसिद्ध थी, को भी कलेक्टर, तहसीलदार, जज से मिलने के लिए सोनापुर आने-जाने की जरूरत पड़ने लगी। ठाकुर भूपेंद्र सिंह की कुछ जमीदारी सोनापुर क्षेत्र में पड़ती थी। लगान वसूलने और जमा करने के दौरान दोनों लोगों की मुलाकात कभी-कभी कलेक्टर साहब के बंगले में हो जाती थी। वक्त बीत गया, कब वह दोनों एक दूसरे के करीब आए गए पता ही नहीं चला। छोटी पंडिताइन का पैर ऐसा फिसला कि ठाकुर के आंगन तक आ गया।
ठाकुरों के घरों में उन पुराने समय में औरतें विरोध जता तो सकती थी लेकिन कुछ कर नहीं सकती थी। ठकुराइन भी शुरू की बेचैनी के बाद शांत हो गई। और अपना नसीब मानकर जीवन व्यतीत करने लगी। छोटी पंडिताइन और ठाकुर के चर्चे इलाके में आग की तरह फैले लगे। दोनों परिवार के लोगों में रंजिश भी रही झगड़े भी हुए। कोर्ट कचहरी, पंचायत भी लगी पर बाद में समाज सिर्फ एक मूकदर्शक बनकर रह गया। दोनों की जिंदगी कहां से कहां ले गई थी। जंगल की कोठी पर मिलना हफ्तों पड़े रहना। सिर्फ छोटी पंडिताइन के प्रेम ने समाज की सब बेड़ियां तोड डाली। विधवा का समाज में खुला प्रेम प्रसंग लोगों की आंखों में किरकिरी थी।
कुंवर अरुण प्रताप सिंह, ठाकुर साहब का छोटा लड़का, एक बिगड़ैल रईसजादा की तरह गुंडई और दबंगई करने में लिप्त रहने लगा। उसका शराब, वेश्या, खून खराबा ही शौक रह गया था। एक रात शराब और मुजरे की दावत में किसी तवायफ ने जहर देकर कुंवर की जीवन लीला समाप्त कर दी। ठाकुर भूपेंद्र सिंह को हवेली से घृणा हो गई। और उन्होंने जंगल में पहाड़ियों के बीच एक कोठी बनवाई और दिन के कामकाज के बाद रात वहीं पर विश्राम करने लगे। छोटी पंडिताइन का मेलजोल और प्रगाढ़ हो गया। विधवा का ध्यान जायदाद की तरफ क्या काम हुआ कि परिवार के लोगों ने अंग्रेजों से मिलकर जायदाद में लूटपाट खींचा-घसोटी चालू कर दी। राजकुमारी का भतीजा गंगा देवराय अंग्रेजों का पिट्ठू बन गया। और जमीदारी की जड़ खोदने में लग गया। छोटी पंडिताइन को रास्ते से हटाने की सोचने लगा। एक दिन डाकू लक्खा को काफी मोटी रकम देकर जगरानी को मरवाने की पेशकश कर दी।
एक खुशगवार शाम को ठाकुर साहब और राजकुमारी जगरानी पैदल घूमते-घूमते नदी के किनारे तक आ गए। हाथों में हाथ प्यार में गाफिल जोड़ी अचानक घोड़ों की टॉप सुनकर ठिठक गई। ठाकुर का हाथ फौरन पिस्तौल पर चला गया। और राजकुमारी सिमटकर बाजुओं में आ गई। एक क्षण में पंडिताइन ने भी हमेशा साथ रहने वाली पिस्टल हाथ में ले ली। वह बचपन से ही अचूक निशानेबाज थी। अचानक एक भारी-भरकम शरीर का काला आदमी पगड़ी बांधे दोनाली हाथ में लिए घोड़े पर सवार आमने-सामने आ गया। दोनों को समझने में देर नहीं लगी कि दोनों डाकुओं से घिर गए हैं। ठाकुर ने कड़कती आवाज में पूछा कौन? जवाब आया सरकार हम लक्खा डाकू हूं। हमारी आपसे कोई दुश्मनी नहीं है। हमारे मां-बाप ने आपका नमक खाया है। लेकिन सरकार राजकुमारी जगरानी मेरे हवाले कर दो। लक्खा तुम जानते हो कि ठाकुर भूपेंद्र सिंह अपने मातहतों का स्वागत ही नहीं। उनकी रक्षा भी करना जानते हैं। अगर राजकुमारी को ले जाना है। तो तुम मुझे मार कर ही ले जा सकते हो। वरना अपने घर लौट जाओ। और कोठी पर आकर जो चाहना वह ले जाना। सरकार हमारी मजबूरी है। गंगा देव राय ने इस काम के लिए मुझे पूरी 50 गिन्नी दी हैं। लक्खा जिस काम के पैसे ले लेता है। उसे अपनी जान लगाकर भी पूरा करता है। तो लक्खा सावधान अब जंग होगी। जो जीतेगा वह राजकुमारी को ले जाएगा। ठाकुर की जिद और डाकू का कॉल आमने-सामने था। निर्णय विधाता के हाथ में।
तभी एक खूंखार जानवर के दहाड़ ने की भयानक चीतकार ने सबका ध्यान विचलित कर दिया। ठाकुर भूपेंद्र सिंह असंतुलित हो गए और पैर से फिसलकर पहाड़ी के नीचे बह रहे दरिया में गिर पड़े। राजकुमारी देखते ही चीख पड़ी बचाओ-बचाओ। डाकू लक्खा बहसी हंसी हंस रहा था। उसने सोचा कि ठाकुर साहब की बिना हत्या किए। उसका कॉल पूरा हो रहा था। वह राजकुमारी की तरफ बढ़ा और पकड़कर घोड़े पर बैठाने की कोशिश करनी चाही। राजकुमारी बहादुर और निशानेबाज भी थी। उसने ताबड़तोड़ दो फायर कर दिए। देखते ही देखते लक्खा ढेर हो गया। साहसी राजकुमारी जगरानी ने बिना वक्त गंवाए दरिया में छलांग लगा दी। इससे पहले कि ठाकुर का दल उस पर हावी हो पाता। राजकुमारी भी दरिया में डूबने उतराने लगी। ठाकुर भूपेंद्र सिंह धारा के विपरीत बहाव में राजकुमारी के करीब पहुंचने की कोशिश कर रहे थे। राजकुमारी भी पूरे साहस से ठाकुर साहब की तरफ पहुंचने के लिए दरिया से लड़ रही थी। ठाकुर ने किसी तरह राजकुमारी की चुनरी पकड़ ली। और दोनों करीब आ गए। थके बोझिल लेकिन चेहरों पर विजय थी। राजकुमारी ने फूलती सांस में पूछा। अब हम कहां जाएंगे? ठाकुर भूपेंद्र सिंह ने कहा उसी आत्मविश्वास से भरी आवाज में
“जिंदगी जहां ले जाए।”
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