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जिम्मेदारी

घर पर खुशियों का माहौल था। सभी ओर से बधाई मिल रही थी। रमेश और सुरेश ने अपनी माँ आरती देवी का नाम रोशन कर दिया था। उनकी सफलता का श्रेय उनकी माँ को जाता था। सब कुछ ठीक चल रहा था। बच्चे अपनी सफलता पर बेहद खुश थे। प्रतिदिन माँ के चरण छूकर अपने काम शुरू करते थे। आरती भी खुद को धन्य समझती थी। बिना पिता के बच्चे का पालन-पोषण करना कौन सा आसान काम था? वह अपने मालिक जय सिंह का धन्यवाद करती नहीं थकती थी।
जय सिंह बड़े आदमी थे। उनका भरा-पूरा परिवार था। सुंदर पत्नी, बाल-बच्चे। वह कई कारखानों के मालिक थे। वह कमजोर तथा गरीबों की सहायता के लिए हमेशा तैयार रहते थे। आरती का पति भी इनके कारखाने में काम करता था। उसने कभी पति का सुख नहीं देखा था। अपने घर पर भी घोर गरीबी देखी थी और पति का हाल तो और भी बुरा था। उस पर वह एक नंबर शराबी, जुआरी था। वह पीड़ा से भर जाती थी। जब भी सुख की बात सोचती तो पति के हाथों पिटाई खाती। वह उसे बुरी तरह लताड़ता था। अपशब्दों से उसका सीना चीर कर रख देता था। उसे चरित्रहीन कहने से भी परहेज नहीं करता था। वह रो-रोकर बुरा हाल कर लेती थी। पर बच्चों के लिए सब कुछ सह लेती थी।
आज शाम से घर पर दोनों भाई भरे बैठे थे। वह माँ का इंतजार कर रहे थे। जब से वह दफ्तर से वापस आए थे। माँ के आते ही वह उन पर बरस पड़े। माँ बड़ी परेशान थी। आज ना कोई दुआ-सलाम, ना कोई चरण-स्पर्श। आखिर ऐसा क्या हो गया मेरे बच्चे को? क्या हुआ बेटा? तुम ही बता दो। आज तुम अपनी माँ से इतना कड़वा क्यों बोल रहे हो? क्या इसलिए मैंने तुम्हें पढ़ाया-लिखाया था? क्या मैंने रात-दिन इसलिए मेहनत की थीं? यही दिन देखना बाकी रह गया था।
रमेश गुस्से से चिल्लाया आपको माँ कहते हुए भी मुझें शर्म आ रही हैं। सुरेश भी कह रहा था, आपके कारण हमारा सिर सबके सामने शर्म से झुक गया है। लोग हमारी सफलता का श्रेय हमें ना देकर जयसिंह को दे रहे हैं। हम अपनी जुबान से उसका नाम भी नहीं लेना चाहते। तुम जयसिंह की रखैल हो। सभी हमें यही ताना मार रहे हैं।
रखैल, तुम्हें शर्म नहीं आई माँ। इतना घटिया काम करते हुए। तुमने आज हमें जीते जी मार दिया है। हमारा मन कर रहा है हम नदी में कूद कर अपनी जान दे दें। फिर तुम अपनी मनमर्जी करती रहना। ना तुम्हें कोई टोकने वाला होगा। जितना जी चाहे रंगरलियाँ मनाती रहना। अपने यार जयसिंह के साथ। बच्चों के व्यंग्य-बाण ने आरती को तोड़ कर रख दिया था। काटो तो खून नहीं, उसे ऐसा महसूस हो रहा था। जैसे वह कुछ बोल नहीं सकती थी। उसकी आँखें रो रही थीं। वह चुपचाप उठकर घर से बाहर निकल गई।
बच्चों ने उसे रोकने का कोई प्रयास नहीं किया। आरती आज खुद को बहुत जलील महसूस कर रही थी। वह नदी की तरफ बढ़ती जा रही थी। वह आज अपनी जीवन-लीला समाप्त कर देना चाहती थी। मन ही मन अतीत की यादें उसे तडपा रही थीं। वह खुद से कह रही थी आज जीवन समाप्त करने का क्या फायदा? उस दिन जीवन खत्म करती। जब इनका बाप भी तुम्हें चरित्रहीन कहा करता था। रोज ताने मारता था।
मैंने अपना पूरा जीवन लगा दिया इनकी परवरिश करने में। वह मन ही मन कह रही थीं। हाँ, मैं हूँ चरित्रहीन। पर क्यों बनी मैं चरित्रहीन? इनके लिए, जब इनके पिता मुझें बीच में ही छोड़ कर चले गए थे। सिर्फ चार-पाँच साल के थे ये दोनों। कोई रोजगार नहीं था। कैसे पालती इन्हें, कोई सहारा देने को तैयार नहीं था?
जब भी किसी से मदद की आशा करती तो बदले में सभी मेरी देह चाहते थे। उनकी भूखी नजरें मुझे नोंच डालना चाहती थीं। दुकान वाले बनिए ने तो लगभग मेरी इज्जत तार-तार कर ही दी थी उस दिन। सिर्फ दो किलो आटे के बदले में, यही मूल्य था मेरी इज्जत का, मेरी देह का। बड़ी मुश्किल से भागी थी बनिए से बचकर, फटे कपड़ों में अपने तन को छुपाती हुई रात के अंधेरे में किसी तरह घर पर पहुंची थी।
मकान मालिक ने कह दिया था कि 'सुबह घर खाली कर देना।' उन्हें भी मेरी हालत पर दया नहीं आई थी। सभी को मेरा ही कसूर लग रहा था। शायद उस दिन पहली बार मुझ पर धब्बा लगा था चरित्रहीन होने का। कितने सवाल उठे थे मेरे मन में क्या मैं सचमुच चरित्रहीन हूँ? क्या किया था मैंने? मैं खुद को बचा लाई थी उसी पापी हाथों से, यही मेरा अपराध था। पर मैंने मुँह नहीं छिपाया था इस समाज से। बस मुझे तो एक ही बात पता थी मेरे बच्चे भूखे-प्यासे बैठे हैं। माँ हूँ ना, माँ की पीड़ा एक माँ ही समझ सकती है। पुरुष तो हमेशा ही औरतों को भोग की वस्तु समझते हैं। इससे ज्यादा उसका कोई मोल नहीं है, पुरुष की नजर में। वह नदी की तरफ दौड़ी जा रही थी।
उसे आज भी वह दिन याद आ रहा था। जब जयसिंह सेठ के घर का काम मांगने गई तो उन्होंने मेरा बड़ा आदर-सम्मान किया था। इतना अपनापन दिखाया था कि अंदर ही अंदर मैं खुद को सम्मानित महसूस कर रही थी। पर कहीं ना कहीं एक डर था कि वह इस मान-सम्मान की आड़ में.... फिर खुद को धिक्कार दिया था मैंने। मैं मालिक के घर का काम बड़ी लगन से करती रहती थी। कभी शिकायत का मौका नहीं देती थी। उनका भी प्यार भरा हाथ मेरे सिर पर सदा रहता था। मुझे बहुत दुलार करते थे। क्या सभी बड़े आदमी इतनी आत्मीयता से भरे होते हैं? मैं खुद से सवाल करती थी।
उस दिन रक्षाबंधन का त्यौहार था। सेठ जी की तीनों बहनें उन्हें बड़े प्यार से राखी बांध रही थीं। मैं घर के कामकाज में व्यस्त थी। पर फिर भी कनखियों से सेठ जी को निहार रही थी। मैं मन ही मन कह रही थी। ऐसा भाई तो सभी को मिले। कितनी भाग्यवान हैं सेठ जी की बहनें? पता नहीं सेठ जी ने मेरे मन की बात कब पढ़ ली? सेठ जी ने एक थाली और मंगवाई। उसमें रोली, अक्षत, मिठाई, एक सुंदर सी राखी रखी थी। सेठ जी ने अपनी पत्नी से कहा, मेरी छोटी बहन आरती देवी को बुलाओ। मैं अपना नाम सुनकर हैरान थी। छोटी बहन, तभी सेठ जी की पत्नी ने मुझसे कहा। अब चलो भी ननद जी। मुझे यकीन नहीं हो रहा था। सेठ जी ने अपना हाथ मेरी तरफ बढ़ाया दिया था। इशारे से कहा जल्दी करो बांध लो अपने भाई को प्यार के बंधन में। मैंने राखी उनके हाथों में सजा दी। मैं फूली नहीं समा रही थी खुशी के मारे। सेठ जी ने मुझे गले लगा लिया। अपनी बहनों के साथ मुझे भी कहा आज कुछ भी मांग लो अपने भाई से। मैं इतना ही कह सकी थी। मेरे बच्चे, सेठ जी ने कहा इनके पढ़ाने-लिखाने की जिम्मेदारी मेरी। जब तक वह तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं संभाल लेते।
भाई ने तो अपनी जिम्मेदारी पूरी कर दी थी। पर रमेश, सुरेश समाज के बहकावे में आ गये। वह रो रही थी कोई भी उसके आँसू पोछने वाला नहीं था।
आज भी रक्षाबंधन का त्यौहार था। सुबह से जयसिंह आरती का इंतजार कर रहे थे। जब दोपहर तक भी वह नहीं आई तो वह खुद ही चल पड़े, आरती के घर पर। अपनी प्यारी बहन से राखी बँधवाने के लिए।
पर घर में तो मातम पसरा पड़ा था। आरती-आरती को आवाज देने से भी जब कोई जवाब नहीं मिला तो सेठ जी अंदर ही चले गए। उन्होंने बच्चों से सीधा एक ही सवाल किया, कहाँ हैं मेरी छोटी बहन आरती? जल्दी बुलाओ उसे, जब तक वह मुझे राखी नहीं बांधेगी। हम कुछ नहीं खाएंगे। इस प्रण को आरती भी निभा रही है, इतने सालों से। यह सुनकर रमेश और सुरेश के पैरों तले से जमीन खिसक गई। आप हमारी माँ को अपनी बहन मानते हैं। हाँ, बेटा वह पिछले बीस वर्षो से मुझे राखी बांध रही है। वह मेरी सबसे प्यारी बहन है। जो हमेशा मेरे पास रहती है। यह सुनते ही रमेश और सुरेश फफक-फफक कर रोने लगे।
उन्होंने सारी बात सेठ जी को बता दी। सेठ जी तमतमा उठे। क्या खूब जिम्मेदारी निभाई है तुमने? तुम्हें शर्म नहीं आई। सभी आरती को ढूंढने निकले पड़े। आरती को नदी किनारे देखकर सेठ जी ने उसे गले लगा लिया। मेरी बहन तुमने यह कैसे सोच लिया कि मेरी जिम्मेदारी खत्म हो गई है? चलो मेरे साथ, दोनों बच्चे सेठ जी के पांव पकड़कर क्षमा याचना करते रहे।
पर आरती नहीं रुकी। उसने इतना ही कहा तुम अपनी जिम्मेदारी संभालो, मैं अपनी जिम्मेदारी। रमेश और सुरेश खुद को अपराधी महसूस कर रहे थे कि उन्होंने अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह क्यों नहीं किया?
समाप्त
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