top of page

जीवन का चक्र

रमाकांत शुक्ल

विश्वा की नई-नई शादी हुई थी। ससुराल से एक महीने बाद जब वह वापस मायके लौटी। तो मां के सामने रोने लगी और बोली मां, मुझे किस घर में पटक दिया। वहां तो मेरी कोई इज्जत ही नहीं है। सारा दिन नौकरानी की तरह रसोई में खड़ी रहती हूं।
सास-ससुर की रोटी पकाना। ननद और दो छोटे देवर की रोटियां पकाना। आए दिन सासू मां के रिश्तेदार आते रहते हैं। उनको नाश्ता कराना। आराम ही नहीं मिलता। जिंदगी नरक सी बन गई है। मुझे अपने पति पर बहुत गुस्सा आया। जब उन्होंने महीने की पूरी तनख्वाह सासू मां के हाथों में रख दी। और मुझसे कहा, “तुम्हें जो भी चाहिए एक पर्ची पर लिख देना। मैं शाम को ड्यूटी के बाद ले आऊंगा।”
ये सब सुनकर सुनीता की मां ने कहा, “तुम्हारे पास दो रास्ते हैं। एक तो तुम वहीं रहो और उनकी सेवा करो। क्योंकि परिवार भी तुम्हारा है। और दूसरा कि तुम अपने पति को किसी किराए के मकान में ले जा सकती हो। वहां तुम्हें किसी का खाना नहीं बनाना पड़ेगा। किसी के कपड़े नहीं धोने पड़ेंगे। पूरी तनख्वाह तुम्हें मिलेगी। लेकिन एक बात याद रखना। जब तुम्हारा कोई बेटा होगा। तुम्हारी भी बहू आएगी। उस वक्त तुम भी यही चाहोगी कि मेरा बेटा बहू मेरे साथ रहे। मेरे पोते मेरे साथ खेलें। प्यास लगने पर पानी लेकर आएं। खाना बन जाने पर बुलाने आए कि दादी आओ सब साथ खाएं।
मां ने कहा जिन कामों को तुम दुख बता रही हो। यही जीवन के महत्वपूर्ण क्षण हैं। एक ग्रहणी अपने काम को सरल बनाकर निपटा देती है।
यही जीवन का चक्र है। जो आज मां है, वही कल सास बनती है। इसलिए आज तुम जो अपनी सास और परिवार के लिए करोगी, वही कुछ समय बाद तुम्हारे साथ भी होगा।

******

2 views0 comments

Recent Posts

See All

Comments


bottom of page