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जीवन का लक्ष्य

मुकेश ‘नादान’

'पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव से नरेंद्र ने अतीत को भुलाकर वर्तमान में रहना सीखा था। उन्होंने बाइबिल भी पढ़ी थी, किंतु संस्कृत का ज्ञान न होने के कारण उपनिषद्‌, गीता आदि ग्रंथों का अध्ययन नहीं कर पाए थे। नरेंद्र जानते थे, 'पाश्चात्य संस्कृति और भारतीय संस्कृति में क्या अंतर है और उनकी उपयोगिता है, किंतु उन्हें किसी भी धर्म-संस्था में त्याग एवं सत्यनिष्ठा के दर्शन नहीं हुए। भावावेश में आनंदविभोर हो जाने वाले रामकृष्ण का अद्वैतवाद ही ऐसा था, जो आत्मत्यागी और सत्यनिष्ठ युवकों को अपनी ओर आकृष्ट कर रहा था; लेकिन नरेंद्र की तर्कबुद्धि उससे भी अपना सामंजस्य स्थापित नहीं कर पा रही थी।
अठारह वर्ष की आयु में उन्होंने रामकृष्ण के पास जाना आरंभ किया था। बी.ए, उत्तीर्ण करते समय वे इक्कीस वर्ष के हो चुके थे। धन, ऐश्वर्य, वासना, सुख-भोग की उन्होंने कभी इच्छा नहीं की थी। सत्य की खोज तथा राष्ट्रीय एवं मानव जाति का कल्याण ही उनके जीवन का परम लक्ष्य था। नरेंद्र ने जब बी.ए. की परीक्षा भी नहीं दी थी, उनके पिता ने उन्हें प्रसिदृध अटार्नी निमाईचरण बसु के पास भेजना शुरू कर दिया था, ताकि वे भी कानून की शिक्षा 'पाकर उनके जैसे सफल वकील बन सकें। इसके अलावा उनकी यह भी इच्छा थी कि वे रामकृष्ण के चक्कर में न 'फँसकर अपनी गृहस्थी बसा लें। इस कार्य में उन्होंने नरेंद्र के सहपाठियों का भी सहयोग लिया।
एक दिन नरेंद्र किराए के अपने “तंग' कमरे में बैठे पठन-पाठन में लीन थे। उनका एक मित्र विश्वनाथ के कहने पर नरेंद्र से मिलने आया और गंभीर स्वर में बोला, “नरेंद्र, तुम्हारी यह आयु साधु-संगत, धर्म-अर्चना की नहीं है।
इन व्यर्थ की बातों को छोड़कर सांसारिक वस्तुओं का उपभोग करो।”
नरेंद्र कुछ पल विचार करने के बाद बोले, “मैं संन्यासी जीवन को मानव जीवन का सर्वोच्च आदर्श मानता हूँ।
'परिवर्तनशील अनित्य संसार के सुख की कामना में इधर-उधर भटकने की अपेक्षा मैं उस अपरिवर्तनीय 'सत्यं-शिवं-सुंदरम्‌' के लिए प्राणपण से प्रयास करना अति उत्तम समझता हूँ।"
नरेंद्र की बात का प्रतिवाद करते हुए मित्र ने कहा, “नरेंद्र, अपनी प्रतिभा और बुद्धि के प्रयोग से उन्नति करो। संसार में आए हो तो जीवन का सही अर्थ पहचानो। दक्षिणेश्वर के रामकृष्ण ने तुम्हारी बुद्धि खराब कर दी है। यदि अपनी खैर चाहते हो तो उस पागल का साथ छोड़ दो, अन्यथा तुम्हारा सर्वनाश निश्चित है।"
उनका मित्र न जाने रामकृष्ण के विषय में क्या-क्या कहता रहा। अंत में नरेंद्र बोले, “ भई, उस महापुरूष को तुम क्या समझ पाओगे, जब इतने वर्षों में मैं ही नहीं समझ पाया।”"
अंत में मित्र को हार माननी पड़ी। बह्मसमाज के कई युवा सदस्य रामकृष्ण के शिष्य बन गए। ब्रह्मसमाज के नेता शिवनाथ इस स्थिति से व्यग्र हो उठे। एक दिन उन्होंने नरेंद्र को दक्षिणेश्वर जाने से रोकते हुए कहा, “वह सब समाधि भाव जो तुम देखते हो, सब स्नायु की दुर्बलता के चिह्न हैं। अत्यधिक शारीरिक कठोरता का अभ्यास करने से रामकृष्ण का मस्तिष्क विकृत हो गया है।” शिवनाथ बाबू की बात सुनकर नरेंद्र ने कोई उत्तर नहीं दिया और चुपचाप चला आया, लेकिन मन में तूफान उठ रहा था। वह सोचने लगा, “आखिर यह सरल हृदय महापुरूष क्‍या है? क्‍या वास्तव में वह विकृत मस्तिष्क है, आखिर मेरे जैसे तुच्छ मनुष्य से उसे इतना लगाव क्यों है? आखिर रहस्य क्या है? ”
बह्मसमाज के अधिकांश नेताओं से नरेंद्र परिचित था और उनकी विद्वत्ता से भी प्रभावित था, किंतु फिर भी उसके मन में जितनी श्रदृधा रामकृष्ण के प्रति थी, उन सबके प्रति नहीं थी।

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